रविवार, 21 जुलाई 2024

एक व्यंग्य व्यथा 110/07 : --- -ताली बजा दो प्लीज़--

 एक व्यंग्य व्यथा : : ---ताली बजा दो प्लीज़--।


     कवि-सम्मेलन, मुशायरों के खुले मंचों पर जो सुविधा कुछ कवियों, शायरों को सहज उपलब्ध है वह फ़ेसबुक ह्वाट्स अप मंचो पर नहीं । इसीलिए  खुले मंच पर अदाओं से पढ़्ने वाले अजीम शायर वरिष्ठ कवि माने जाते हैं और पढ़ने वालियाँ  वरिष्ठ कवयित्री  और अजीज़ा शायरा मानी जाती हैं। मतलब जो दिखता है वो बिकता है  ।कुछ लोग बिकते नहीं, अत: दिखते नहीं।
    कवि सम्मेलनों , मुशायरों मे वह सहज सुविधा है --श्रोताओं से ताली बजवाना --दाद की भीख माँगना । फ़ेसबुक पर यह सुविधा नहीं है। फेसबुक पर किसी ने दाद दिया, दिया, नहीं दिया, नहीं दिया । लाइक किया, किया ,नहीं किया, नहीं किया। माँगना नहीं पड़ता ।खैर मेरा काम तो ’लाइक’ से ही चल जाता है। भविष्य में तो लोग ’फूँक’ मार कर ही ”लाइक’ कर दिया करेंगे।  क्या फ़र्क पड़ता है  कि उसने मुझे पढ़ कर ’लाइक’ किया कि बिना पढ़े ’लाइक’किया  कि फूँक कर लाइक किया कि वाह वाह किया । मुझे तो गुठलियाँ  गिनने से मतलब है, कितनी गुठलियाँ आईं मेरे पोस्ट पर। जिन्हे आम खाना हो, आम खाए।
    मुशायरॊ के खुले मंचॊं पर देखना पड़ता है कितनी तालियाँ बजी--किस कोने से बजी --, कितनी देर तक बजी,-- बैठे बैठे बजाई कि खडे होकर बजाई। नहीं बजाई तो  फिर वही लाइन सुनाएंगे तब तक , जब तक कि-कोई -।कम बजी तो  - तालियाँ वाह वाह दाद माँगते नज़र आयेगे- अरे भाई इतनी जोर से ताली बजाओ कि "दिल्ली’ तक सुनाई दे। LOC  के पार तक सुनाई दे। हमें नही, दिल्ली को सुनाना है । दिल्ली  बहरी हो गई है। सुनती नही।
  जो भाई लोग पीछे खड़े है वह आगे आ जाएँ कि उनकी भी तालियाँ सुनाई पड़े कि दिल को ठंडक पहुँचे। हम शायर कविगण तो इन्हीं तालियों के लिए जिंदा हैं , वाह वाह के चक्कर में सैकड़ॊ मील दूर यहाँ तक खीचे चले आते हैं । यही हम लोगों की संजीवनी है।इसी से जीते हैं । नहीं तो  बिना वाह वाह के कविता सुनाने का क्या अर्थ , क्या जीना।
 घर पर श्रीमती जी को ही न सुना देते।
 हां~ तो मैं सुना रहा था--सुनिए
-प्यास ही मर गई जब भरी उम्र में---
अब  अगली लाइन जो  पढ़ने जा रहा हूँ --आप का समर्थन चाहूँगा आप ज़रूर वाह वाह करेंगे-- तालियाँ बजाएँगे।  रोक न पायेगे अपने आप को ।न भी बजाएँगे तो भी बज उठेगी आप की तालियाँ ,अपने आप।
हाँ.अगली लाइन है---पहली बार सुना रहा हूँ  -किसी सम्मेलन में आप ने नहीं सुनी होगी--  किसी ने ऐसी लाइन न लिखी है  न लिख पाएगा,  न सुनाई ~- न सुना पाएगा -- सुना रहा हूँ-लाख टके की लाइन है--सुने
प्यास ही मर गई जब भरी उम्र में---

यह प्यास साधारण प्यास नही है -सड़क छाप प्यास नहीं है छिछोरी प्यास नहीं है-- आध्यात्मिक प्यास है । जूली जी सुनिए- (पीछे मुड़ कर किसी जूली जी कवयित्री  , से मुखातिब हुए)---जूली जी सुनिए- बतौर-ए-ख़ास आप के लिए -नदिया ही हर समय प्यासी नहीं रहती -- समन्दर भी कभी कभी---्सुने
प्यास ही मर गई---
बड़े अच्छे से सुन रहे है-आप लोग -पहली बार इतने अच्छे श्रोता देखे ज़िंदगी में-- ऐसे श्रोता तो अमेरिका दुबई में भी नहीं दिखे--रसिक लाल जी ने बड़ाअच्छा आयोजन किया  कि कुछ कवयित्रियों को बुला लिया  मुझे भी बुला लिया नदी नाव की जोड़ी--काव्य-रसिक है-सरस्वती पुत्र है --माँ शारदे की कॄपा है उनपर ।- हां~ तो -सुनिए
’प्यास ही मर गई जब------ 
वाह वाह की आवाज़ ज़रा कम आ रही है --तालियाँ ज़ोर से बजाइए--- । मेरी अगली लाइन पर जो श्रोता 
ताली नही बजाएँगे --तो बताए देता हूँ  अगले जनम में वह चौराहे चौराहे तालियाँ बजाते नज़र आएँगे --ध्यान से सुने --
 प्यास ही मर गई जब भरी उम्र में --
क्या भाई साहब घर से खा कर नहीं आएँ है क्या? -- ज़रा ज़ोर से बजाएँ- ताली -वाह वाह करें कि यह हाल गूँज जाए-
चाय वाले भइया --चाय बाद में पिलाना -अभी मैं प्यास बढ़ा रहा हूँ । तू एक दिन बहुत बड़ा आदमी बनेगा--एक  आदमी ऐसे ही चाय पिलाते पिलाते आज बड़ा आदमी बन गया जो आज सबको अब पानी पिला रहा है--
इस पर श्रोताओं ने तालियाँ बजाई । शायद बात समझ में आ गई।
:प्यास ही मर गई जब ----- 
एक बार  मैं दुबई गया था कविता पढ़्ने--जाने का मन तो नही  मगर आयोजकों ने इतना जिद किया कि जाना ही पड़ा। वहाँ--क्या हुआ कि --।  अब कवि जी 5-मिनट दुबई आख्यान सुनाने लगे  और बीच बीच में वह लाइन भी सुनाते  जा रहे थे--
-प्यास ही मर गई जब भरी उम्र मे- आधे घंटे से एक ही लाइन सुनाए जा रहे थे। 
"दो साल पहले मैं अमेरिका में कविता पढ़ने गया था--"-वहाँ--। अब वह 5-मिनट अमेरिकी आख्यान सुनाने लगे--
फ़ोटू वाले भाई साहब -ज़रा सीधे बाजू हों ले कि मेरी प्यास साफ़ नज़र आए---।
 इस पर श्रोताओं ने तालियाँ नही बजाई।

श्रोताओं ने सोचा जब तक यह तालियाँ , वाह वाह न सुन लेगा ---यह  मुआ जाएगा नहीं। यही घुमा्ता रहेगा बार बार। अत: सभी श्रोताओं ने समवेत स्वर से --वाह वाह वाह वाह -क्या खूब- क्या-खूब-करतल ध्वनि से,--तालियाँ बजाई। वाह वाह मज़ा आ गया---
तालियाँ सुनते ही कवि जी खुशी से झूम उठे तो अगली लाइन निकल गई जो तालियों बिना अटक गई थी। कब्ज रहा होगा। वाह वाह कब्ज़ निवारण गोली का काम कर कई। पढ़ना था ।

अब ये बादल भी बरसे न बरसे तो क्या---

 मारे  खुशी के पढ़ गए--

अब ये ताली बजे ना बजे भी तो क्या ॥
यानी

प्यास ही मर गई जब भरी उम्र में
अब ये ताली बजे ना बजे भी तो क्या !

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 कुछ दिनो बाद उन्हीं आयोजको ने एक कवि सम्मेलन में मुझे भी निमंत्रित किया कविता पढ़ने को।
आयोजक : आइए पाठक जी ! स्वागत है । आप के चरण-रज से यहाँ की  धरा धन्य  धन्य हो गई ।अपावन मतलब पावन हो गई।,आप के साथ यह भाई जी कौन है?  कवि हैं ?  कविता पढ़ेगे?
मैने कहा     : नहीं । मिश्रा जी है। मित्र हैं। मंच से यह मेरे लिए " तालियां" और "दाद"  माँगेगे । मैं ज़रा ख़ुद्दार किस्म  का कवि हूं न- इसलिए इनको साथ रखता हूं~  । कुछ   ’पत्रम-पुष्पम"  इन्हें भी--- हेे हें हें- ।सन्तोषी जीव हैं।
अस्तु 

-आनन्द.पाठक-

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