---कीचड़ फेंकना,,,,
[ नोट- मैं पहले ही स्पष्ट कर दूँ कि यह कोई गम्भीर लेखन
नहीं है ।,इसके लिए अन्य क़िस्म के प्राणी होते हैं जिसे बुद्धिजीवी या चिन्तक कहते है। और
मैं बुद्धिजीवी नहीं हूँ।पहले ही माफ़ी मांग लेता हूं कि कहीं बाद में किसी नेता की
तरह बयानों से मुकरने या माफ़ी मांगने की नौबत न आ जाय ।थूक कर .....नौबत न आ
जाय ]
हाँ तो, हिन्दी में एक मुहावरा - ’कीचड़ फेकना" ।-काफी
प्रचलित मुहावरा है। राजनीति में तो ख़ैर
यह खुल कर व्यावाहारिक रूप से बिना किसी रोक-टॊक के प्रयोग होता है।
कभी कभी तो व्यक्तिगत स्तर आमने-सामने सार्थक रूप से प्रयोग होता है ।साहित्यकार
भी आजमाने लगते हैं इस मुहावरे का सांस्कृतिक संस्करण -’कीचड़-प्रक्षेपण"। यह
बात अलग है कभी ’कीचड़’ लग जाता है ,कभी नहीं
लगता है ।कभी चिपक जाता है। कभी नहीं चिपकता ।यह सब कीचड की ’गुणवत्ता’ और आप की ’फेकन’ क्रिया पर
निर्भर करता है
कहीं कहीं इसके पर्याय में ’कीचड़ उछालना’ भी प्रयोग होता है । ’कीचड़ में लात
मारना’ कम ही प्रयोग होता है ।इसके पर्याय में ’गोबर में लात मारना’ ज़्यादे
प्रभावकारी लगता है सो चलता है । हो सकता है अन्य अंचल में कोई अन्य ’आंचलिक’
प्रयोग होता हो। कीचड़ पर बात चली तो ’कीचड़ में लोटना’ भी एक प्रयोग होता है ।कीचड
में छपछ्पाना ’मुहावरा अभी बना नहीं ।राजनीति का यही हाल रहा तो वह भी बन जाएगा।
तो क्या यह सब मुहावरे एक
-से हैं ? प्रथम दॄष्टया लगता तो ऐसा ही है। पर गहराई में जाने पर ऐसा है नहीं।
’कीचड़ फ़ेकना’-एक क्रिया
है जिसमें व्यक्ति अपने सामने वाले पर ’फेंक ’ कर आत्म-सन्तोष पद को प्राप्त होता
है। आत्म-मुग्ध हो जाता है।क्या लपेटा है स्साले को । इसी आत्ममुग्धता में उसे यह भी
ख़याल नहीं रहता कि उसका स्वयं का भी हाथ गन्दा हुआ ।अपनी नाक कटी तो क्या हुआ ,दूसरे का
शगुन तो बिगड़ा। तो फिर क्या ? यही कामना सामने वाला भी करता है । फिर दोनों आत्म-सुख में
विभोर हो जाते है। कीचड़ फ़ेंकना ’एकल-दिशा’ की [uni directional] क्रिया है
।आप एक समय में कई लोगो पर कीचड़ नहीं फेंक सकते ।एक समय-बिन्दु पर एक आदमी पर ही
फेंक सकते है ।
तो फिर "कीचड़
उछालना"??
"फेंकने" और
’उछालने’ में फ़र्क है? फेंकने में लक्ष्य निर्धारित है । निशाना लगा तो लगा
।नहीं लगा तो नही लगा ।सामने वाला अपनी सुरक्षा की दॄष्टि से भविष्य के लिए सचेत
रहता है ।क्रिकेट में ’बाल’ फेक कर ’विकेट’ गिराने का जुनून रहता है ।उछालने’ में
क्या है?उछालेगा तो विकेट गिर भी सकता है ,नही भी गिर सकता है ।कहीं अपने ही ऊपर गिर
गया तो अपनी ही भद्द पिट जाती है । उछालने की क्रिया में उतना ’आत्म सुख’ नहीं
मिलता जितना ’फेकने’ की क्रिया में मिलता
है ।
तो फिर ,"कीचड़ में लात मारना" या "गोबर में
लात मारना"? -[गोबर किसी का हो चलेगा?,निर्धारित नही है ?,गाय का हो .भैस का हो ,गोबर के
लिए आवश्यक शर्त नहीं है ] हाथी के ’गोबर’ को गोबर नहीं लीद कहते हैं और उतना एक
साथ उठा कर फ़ेकना या उछालना ज़रा मुश्किल काम होगा ”कीचड़ में लात मारना ’वाला
मुहावरा कीचड़ फेकने से एक स्तर ऊपर वाला मुहावरा है । इसमें गुस्से का समावेश है
।गुस्से में आदमी यह भी भूल जाता है कि सामने कोई है भी कि नहीं । इसमें आत्म सुख
से ज़्यादा -बदले की भावना प्रबल होती है।इसमें कीचड़, सामने वाले पर लगे न लगे
गारन्टी नहीं मगर अपने आप पर लगने की पूरी
गारन्टी है ।यह ’बहु-दिशा प्रक्षेपित ’ वाली ’क्रिया है साथ कई लोग पर प्रभावी
हो सकती है । यह निर्भर करता है कि आप कितनी जोर से लात मारते हैं ?
"मगर कीचड़
में छपछपाना"-?
क्यों नहीं बना यह मुहावरा? बनता तो काफी सशक्त और
प्रभावकारी होता ।छपछपाने से अपने तो रंगते ही रंगते ,भाव विभोर होते रहते और एक
साथ एक ही क्रिया से कई को रंग देते गले गले मिल कर ।आत्म सुख दुगुना हो जाता -आत्म
मुग्धता दुगुनी हो जाती। इस पर हिन्दी के विद्वानों को सोचना चाहिए।
"कीचड़ में लोटने का सुख तो
वर्णनातीत है ।इसमें रत व्यक्ति अपने आप में सुख पाता है।-दुनिया से कोई मतलब नहीं ।वो
अपनी ही दुनिया में मस्त रहता है ।यह परमानन्द की अवस्था होती है ।
आप मन ही मन में समझ लीजिए
इसमें क्या है मज़ा हमसे न पूछिए
यह क्रिया दूसरों के कष्ट
का कारक नही बनता ।इसमें प्राप्त होने वाले सुख को कोई ’सुअर या सुअर का बच्चा’ ही
बता सकता है ।सुअर भाई माफ़ करना -इस से अच्छा दॄष्टान्त न दिखा,न मिला।
[नोट : पाठकों से
अनुरोध है कि इस लघु-लेख पर ’नाक भौं न सिकोड़ियेगा । आप अब सुविचारित निर्णय ले
सकते है कि इस लेखक पर कौन सा कीचड़ फेका जा सकता है ।वैसे भी ’चिकने घड़े पर पानी
नहीं ठहरता ’तो कीचड़ क्या ठहरेगा । निठल्लम
था तो ’लिख दिया अल्लम-गल्लम । वैसे यह सामग्री आप के लिए है भी नहीं ।आप
सब तो पाठक के पाठक हैं और एक पाठक दूसरे पाटक पर कीचड़ नहीं फेकता ।
फेकने वाले और किस्म के
प्राणी होते हैं
अस्तु
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