किस्सा-ए-शालीनता
[सन्दर्भ ...... जब कभी ,मेरे जैसा कोई नवोदित
लेखक यह कहें कि मैं गरीब हूँ , अदना हूँ , आप का सेवक
हूँ --दीन हूँ-- हक़ीर हूँ-- फ़कीर हूँ या
यह कहें कि कभी मेरे ग़रीबखाने पर आएं या फिर कब्र में पैर लटकाए यह कहें कि भइए ! मैं तो अभी तो लिखना सीख रहा हूँ । तो
ये उनकी विनम्रता है, शालीनता है ।
आप उनका शील-संकोच भी समझ सकते हैं।जब कि आजतक उन्होनें कभी किसी को घास न डाली होगी । सीधे मुंह बात न की होगी ।जब
वो यह कहें कि आप उन्हें अपने चरणों का
धूल समझिए तो यह उनकी लगभग ’दण्डवत’-स्तर
की विनम्रता है ।और जब वो यह कहें कि ’आप
के चरण किधर है प्रभु !" -तो समझिए कि यह उनकी विनम्रता की पराकाष्ठा है ।
इसीलिए मैं अपने पाठकों से
बार बार पूछता रहता हूँ -"आप के चरण किधर है प्रभु !"
एक बार फिर आप को याद दिला दूं कि यह गम्भीर
लेखन नहीं है.....कहीं बाद में आप ये न कहें -’अरे ! हमें तो आप ने पहले बताया
नही” ..।सो बता दिया ।
श्रीमन , झुँझलाइए नहीं ।.यह मेरा तकिया
कलाम नहीं है ।यह ’सिगरेट’ की डिब्बी के ऊपर लिखी हुई ’वैधानिक चेतावनी " है.। अगर पीते
हों तो ,’चेतावनी’ पढ़ कर सिगरेट पीना आप कौन सा छोड़ देते हैं ।कम्पनी ही चेतावनी लिखना
कौन-सा छोड़ देती है या आप
मेरा व्यंग्य कौन-सा पढ़ना छोड़ देते हैं --हा हा हा ]
आजकल मौसम ख़राब चल रहा है।
,कहीं मेरे लेखन को आप गम्भीर लेखन न समझ लें । वैसे कई आलोचक तो
व्यंग्य लेखन को साहित्य की विधा ही नहीं मानते । बे-बात की बात में बात कहीं
से कहीं न चली जाय..राई का पहाड़ न बन जाय ...तिल का ताड़ न बन जाय ...लेख का
कबाड़ न बन जाय ...बात का बतंगड़ न बन जाय..राह का
कंकड़ न बन जाय --तो एक ’डिसक्लेमर क्लाज खुद ही चस्पा कर लेता हूँ अपने ऊपर ,
जिससे गम्भीर लेखकों को मुझे पहचानने में दिक्कत न हो और मंच से
धकियाये जाने हेतु मुझे खोजने में उन्हें
समय न लगे...।
आप तो बस पढ़िए--- पढ़ते रहिए --हँसिये,.....,हँसते रहिए
।
किसी मंच
पर, पिछले दिनों एक सदस्य ने किसी अन्य सदस्य की ग़ज़ल को ’तुकबन्दी’ और चर्बा: कह
दिया था -दूसरे भाई साहब ने उसकी
तस्दीक कर दी ..तीसरे भाई साहब ने बात पकड़ ली --चौथे भाई साहब ने यानी इस खाकसार ने बात ’लपक’ ली .. फिर क्या
हुआ ????
बात यहीं से शुरु करते हैं
अब आप कहेंगे कि क्या ये
एक भाई साहब ...दूसरे भाई साहब..तीसरे भाई साहब लगा रखा है।.सीधे सीधे नाम क्यों नहीं
ले लेते...? नहीं, ’राजनीति’ में और ’कूटनीति’ में कोई सीधे सीधे नाम नहीं लेता। ..बस समझने
वाले समझ जाते हैं। जैसे एक नेता जी ने अपने भाषण में कहे कि " हमारे देश
से दक्षिण दिशा का एक देश ’तमिलों" की समस्याओं को सुलझाने हेतु कोई कारगर कदम नहीं उठा
रहा है ,तो मतलब साफ़ है । नाम नहीं लिया ..मगर समझने वाले समझ गये, ।वह दक्षिण
दिशा का देश, अफ़्गानिस्तान में तो होगा नहीं ।
उसी प्रकार जब
प्रधानमन्त्री जी यह कहते हैं कि हमारा एक पड़ोसी देश हमारे देश में ’आतंकवादियों’ को भेजने से बाज नहीं आ रहा है
तो वह देश ’नेपाल’ तो होगा नहीं । समझने वाले समझ जाते है ।नाम लेने की क्या ज़रूरत
है ।
खैर ,एक क़िस्सा
और सुना कर मूल बात पर आते हैं ।
एक बार एक सड़क पर एक शराबी
जोर जोर से चिल्ला रहा था --प्रधान
मन्त्री निकम्मा है ..प्रधानमन्त्री निकम्मा है.
पुलिसवाले ने उसे पकड़ कर 2-डंडा दिया।
बोला -"स्साले ,हमारे प्रधान मन्त्री को निकम्मा कहता है"
शराबी ने कहा -" हमने नाम
कहां लिया? हमने कहाँ कहा कि ’हमारा’ प्रधानमंत्री निकम्मा है?
पुलिसवाले ने फिर 2-डंडा दिया -"स्साले , हमें चराता
है? हमें नहीं मालूम कि किस
देश का प्रधानमंत्री निकम्मा है?
किस्सा कोताह यह कि बिना
नाम लिए भी काम चल जाता है ।
हां, तो अब मूल
बात पर आते हैं ।
जी बिल्कुल सही।आज भी भारत के कुछ कवि या शायर अपनी कविता, विनम्रता
से ही शुरु करते हैं ।नाम बताऊँ क्या ? नाम क्या बताना ।,आप समझ तो
गए होंगे । उनकी मान्यता है कि वृक्ष जितना ही फलदार होता है उतना ही झुकता है । अत: वह झुक रहे हैं ।बरअक्स ,वो समझते हैं कि वो जितना
झुकेगे ,श्रोता उन्हें उतना ही ’फलदार’ समझेंगे ।.वह.और झुकते
हैं । झुकते झुकते , विनम्र होते होते , दीन होते होते ,दीन से हीन, हीन से
दयनीय. दयनीय से दयनीयता की स्थिति तक पहुँच जाते हैं । अपनी ग़ज़लों के लिए ,कविताओं के
लिए तालियॊ की भीख माँगते हैं । मंच के आयोजकों की शर्त पर कविता / ग़ज़ल पढ़ते है ।
भइए ! सत्ता पक्ष की टाँग खीचनी है कि विपक्ष के लिए पढ़ना है ?आप बताएँ? मेरी
’लेखनी’ स्वतन्त्र है ।
मगर
जब उनकी बात किसी बात पर भिड़ जाती है, तब वो दीन-हीन-दयनीयता भूल
जाते हैं । फिर कुछ नहीं देखते । औकात पर
आ जाते हैं । ’आत्म सम्मान’ की बात करने
लगते है। ईमान की बात करने लगते हैं ।
ग़ैरत की बात करने लगते हैं है ।जमीर की बात करने लगते है।,कलम न बिकने की बात करने
लगते हैं । मंगल से शनीचर पर आ जाते हैं । कहने लगते हैं --अरे जा जा ..तेरे से
ज़्यादा ’बदतमीज़ हूँ मैं ।2-4 शे’र क्या लिख दिया अपने आप को ’ग़ालिब’ समझने लगा
है तेरे जैसे ग़ालिब गली गली में कौड़ी के तीन मिलते हैं ।--ऐसे शे’र
तो मैं ’शौचालय में बैठे-बैठे लिख
देता हूं~
-तभी तो तेरे शे’रों से
वैसी -बू आती है - सामने वाला आग में घी डालता है ।
बात तूँ.. तूँ..मैं ..मैं- पर
आ जाती है । शालीनता का चोला जल्द ही उतार
फेंकता है । कृत्रिमता का लबादा बहुत देर तक नहीं ओढ़ा जा सकता ।’दीन-दीनता-शालीनता से उनका उतनी
ही देर तक का वास्ता है जितनी देर तक उनके
शे’रों पर तालियां बजती रहती है ...।.
प्राथमिक पाठशालाओं में
पढ़ा था ’विद्या ददाति विनयम" । विद्या
विनय देती है ।
बाद
में बड़ा होकर वह इस सूक्ति का अर्थ ठीक से समझने लगता है ।- ’विद्या
करोति विनमयम" -समझता है। विद्या विनमय सिखाती है ।व्यापार सिखाती है। लेन देन सिखाती
है ।वह लोग अब कहाँ ,जो लिफ़ाफ़ा
देख कर मजमून भाँप लेते थे । अब तो लिफ़ाफ़ा देख कर वज़न भापता है ।अब तो लिफ़ाफ़े का
लेन देन सिखाती है । मैं तेरी पीठ खुजाऊँ ,तू मेरी पीठ खुजा । कहते
हैं कि हर कवि की कविता में ’दर्द’ एक जैसा होता है ,परन्तु लिफ़ाफ़ा का “वज़न” एक
जैसा नहीं होता ।
यह
भारतीय संस्कृति है । बचपन से सिखाया जाता है, अपने को छोटा समझना ,अहम नहीं
करना ,घमण्ड नहीं करना, विनम्र रहना ,शालीन रहना। बताया जाता है -- ’घमण्डी का सिर नीचा होता है -रावण का उदाहरण
देकर डराया भी जाता है ।मगर वही आदमी जब
बड़ा बन जाता है ,ज्ञानी हो जाता है तो आधी ज़िन्दगी अपने को बड़ा समझने में
गुज़ार देता है और आधी ज़िन्दगी दूसरे को छोटा समझने में।
कभी कभी यह विनम्रता
विपरीत अर्थ भी देती है।
किसी ने अपने मित्र से कहा
-’बड़ा प्यारा बच्चा है आप का !
सामने वाले भाई साहब ने
तुरन्त ’विनम्रता ’का ओवर कोट पहना -’अरे नहीं नहीं -आप का ही
बच्चा है-। यह भी एक प्रकार की विनम्रता है।
इसी विनम्रता -क्रम में एक
किस्सा और सुन लें ।
एक भाई साहब ने अपने कुछ
मित्रों को अपने यहां भोजन पर आमन्त्रित किया ।
सभी मित्र एक एक कर पहुँच
रहे थे और कह रहे थे -’बड़ा शुभ काम किया..ऐसी दावत हर महीने होती
रहनी चाहिए।
मेज़बान महोदय हर आगुन्तकों
से अति विनम्र हो कर स्वागत कर रहे थे -"बस ! सब आप के
चरणों की कृपा है ... बस आप के चरणों की कृपा है....
भोजनोपरान्त बाद में मालूम
हुआ कि सभी मित्रों की ’चरण-पादुका" गायब थीं ।उन भाई साहब नें
उन्हीं ’चरण-पादुकाओं की कॄपा से भोजन कराया था।
कुछ शायर और कवि तो मंच
चढ़ते ही विनम्र हो जाते है। कुछ को देखा
भी है सुना भी है ।कुछ तो ऐसे विनम्र हो जाते है जैसे विनम्र होकर वो ’दाद’ नहीं ,दाद
की ’भीख माँग रहे हों ’...मेरी बात
अगर पीछे बैठे श्रोता तक पँहुचे तो ताली बजा दीजियेगा मैं समझूंगा कि शे’र कामयाब
हुआ ।नहीं भाई साहब ऐसे नहीं । तालियाँ इतनी जोर से बजनी चाहिए कि ’दिल्ली तक
सुनाई पड़नी चाहिए--पाकिस्तान तक पहुचनी चाहिए ।’ तालियाँ खुल कर बजनी चाहिए।--दो चार बजा
भी देते है-10-20 नहीं भी बजाते हैं। जो नहीं बजाते हैं उन्हें वह शाप भी देते हैं -अगले जनम
में तुम सब ढोलक बजा बजा कर घर घर ’तालियाँ’ बजाते फिरोगे । पता नहीं ऐसे शाप
फ़लते या नहीं । मगर उन्हें आत्म-सन्तोष
अवश्य होता है ।
कभी कभी ये विनम्रता
अनजाने में मंहगी भी पड़ जाती है ।
’श्री सत्यनारायण व्रत कथा’
तो आप सब ने सुना होगा ।मैं साधु नाम बनिए की बात कर रहा हूँ । मँहगी पड़ गई उसको
उसकी विनम्रता ।
संक्षेप में बता देता हूँ -जब ’डंडी
महराज ने साधु नाम बनिये से [उसके मन की शुद्धता जाँच करने के लिए] कुछ दान-दक्षिणा की
माँग की तो साधु नाम बनिये ने अति विनम्र
हो कर कहा -’महात्मन ! इस जलपोत में क्या है? ’लता-पत्रादि’ भरा है। .मैं क्या दान दे सकता हूँ ?
महात्मा ने कहा -’एवमस्तु’
फिर क्या हुआ। जलपोत के
सारे हीरा-जवाहरात-सोना चाँदी आदि, ’लता पत्रादि’ में बदल गए ।
अब आप पूछेंगे कि शायर लोग अइसा काई कू बोलता है ?
इसमे एक रहस्य है।
वह जानता है ,जब वो मंच
पे अपनी ग़ज़ल पढ़ेगा तो इधर-उधर से कुछ फ़िक़रे-जुमले आयेंगे। अपनी
कविता/ग़ज़ल पर भरोसा नहीं है तो इसी
विनम्रता का ’बुलेट प्रूफ़ जैकेट ’पहन लेता है ।-लो अब करो टिप्पणी । भाई
जान मैने तो पहले ही कह दिया है कि मुझे ’ग़ज़ल’ की ’ग़’ भी नहीं आती ..बस मैं तो अभी
सीख रहा हूँ । ग़ज़ल से मुहब्बत है । अदब-आश्ना हूँ॥ भावना से लिखता
हूँ । गीत में छन्द आदि नही ,भावनाओं का ज्वार देखिए ।सो आ गया।
इसीलिए भइए ! हर मंच पर ,हर मुशायरे
में मैं तो अपने इसी शे’र से आग़ाज़ करता हूँ । सुरक्षा कवच बना रहे
न आलिम ,न मुल्ला ,न उस्ताद
’आनन’
अदब से मुहब्बत ,अदब
आशना हूँ
सुरक्षा-कवच पहन तो लिया । इस के आगे और क्या ? मजबूरन वाह
वाह ही कहेगा । बहुत खूब बहुत खूब ही कहेगा ।तालियाँ बजायेगा।
फ़ेसबुकिया मंच और महफ़िल
से कुछ अमर वाक्य /’सूक्तियां’ पढ़ी हैं ,नीचे लिख
रहा हूं। अगर आप ने भी कहीं कुछ पढ़ी हों
या आप के दिमाग में भी ऐसी ही कुछ
’विनम्रता’ जोर मार रही हो तो आप भी नीचे
लिख दीजिये । कोष्ठक में उन सूक्तिओं की व्याख्या भी लिख दी है जिससे आप को
निहित भाव समझने में कोई दिक़्क़त न हो।
> यह हक़ीर
कोई शायर नहीं -मैं तो शायरी का ख़ाक-ए-पा भी नहीं
[अगर ’पा’ होते तो शायरी के पैर काट
देते क्या ?
> मैं कोई
कवि नहीं हूँ ,मुझे तो कविता का ’क’ भी नहीं आता । फिर तुलसी दास का एक चौपाई पढ़ेगा-’कवि न होऊँ
नहीं कवित प्रवीनू । हिन्दी तो बस क्लास 10 तक ही पढ़ी थी [ भइए !
स्वाध्याय से आगे भी पढ़ लेते -मना किसने किया था ? ]
>हमें कविता के छ्न्द-बन्द से
क्या लेना देना । जो दिल से निकलता है बस मंच पे लगा देता हूं। छन्द भावों के
प्रवाह को रोक देती है ।गला घोंट देती है । हम तो छन्द-मुक्त कविता कहते हैं ।
’मुक्त छन्द" कविता भी करते है [ अच्छा किया ।सीधे दिल से
निकाल दिया ।,दिल में रहती
तो अपच ही करती ।,हम लाभान्वित हुए दन्य धन्य हुए कि ’शुद्ध रूप
में आप की महान कविता पढने को मिली]
>हम ने बस यूं ही कुछ लिख
दिया ,,वरना हमें कविता करनी तो आती नहीं [ अच्छा किया ..अगर आप सोच
कर ,सयास लिखते तो कौन सा तीर मार लेते ]
> भईया हम
कोई उस्ताद तो हैं नहीं ,बस आप लोगों की ज़र्रा नवाज़ी है कि इस खाकसार को ये
इज़्ज़त बख्शी है [उस्ताद बन जायेगा तो पोल खुल जायेगी क्या ? किसने रोक
रखा है भाई आप को उस्ताद बनने से "]
>मेरे लेखन से एक भी आदमी
का भला हुआ तो समझूंगा मेरा लेखन सफ़ल हो गया ।और क्या चाहिए मुझे [ लगता है यह
शुभ कार्य आजतक नहीं हुआ आप के लेखन से ।और संभावना भी नहीं ]
एक ग़ज़ल आप की ज़ेर-ए-नज़र
-बस में बैठे बैठे बस यूँ ही हो गई [कॄपा आप की ।[जल्दी क्या थी ,कौन सी बस
छूट रही थी ,बस में तो बैठे ही थे । अगर वज़न बहर क़ाफ़िया
रदीफ़ मिला लेते तो कौन सा गुनाह हो जाता ?]
एक सज्जन ने हद ही कर दी।
एक ग़ज़ल यूँ ही-सोते सोते --आप की खिदमत में ।[ मैने भी ऐसी ग़ज़ल सोते-सोते ही
पढ़ा। खिदमत क्या हुई ,मालूम नहीं ।
[इस "शालीनता’ पर
"लिखने को बहुत कुछ है अगर लिखने पे
आते ।अगर लिखने पे आते । उनको यह शिकायत है कि हम कुछ नहीं लिखते।--फ़िल्म का गाना
ही लिख दिया यहाँ । किस फ़िल्म का है मालूम नहीं।
अब आगे इस "शालीनता
"’पर क्या और लिखूँ ?कुछ डरता हूं
कहीं भूल से यह न समझ बैठो
कि मैं अपने लिए भी लिखता हूँ
यार कहीं किसी को तीर-तुक्का लग
गया तो अपनी तो हो चुकी ईद।
तुम्हारी नज़र क्यों ख़फ़ा हो
गई
ख़ता बख़्श तो गर ख़ता हो गई
हमारा इरादा तो कुछ भी न
था.
.तुम्हारी ख़ता खुद सजा हो
गई
[क्षमा-याचना : अगर इस लेख
से कोई पाठक/कवि/शायर जाने-अनजाने आहत
हुए हों तो क्षमा-प्रार्थी हूँ ।
अस्तु
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