क़िस्सा गोबर..गोईंठा...गोहरौल का
एक बार बीरबल
ने अकबर को छेड़ने की नीयत से दरबार में फ़र्माया -’हुज़ूर ! क्या आप जानते
हैं कि जिस लफ़्ज़ के आखिर मे ’बर’ होता है वो कितना अच्छा होता है?
अकबर ने पूछा -"कैसे?
बीरबल ने कहा "जैसे मोतबर..राहबर..दिलबर. --
-’बजा फ़र्माते हो मियाँ ,.देखो ’अकबर में भी ’बर’
है-अकबर ने चहकते हुए कहा
बीरबल ने कहा -" वैसे तो ’गोबर’ में भी ’बर’ है ,हुज़ूर !
बाद में बीरबल का क्या हुआ ,यह तो नहीं मालूम ।,मगर यह बात
निर्विवाद रूप से स्थापित हो गया कि 15-16 वीं शताब्दी में ’गोबर’ शब्द
प्रचलन में आ चुका था। यदि कोई शोधार्थी इस पर अतिरिक्त शोध करना चाहे तो कर सकता है।
अपनी बात इसी गोबर से शुरु करते है।
भाई साहब ! नाक मत सिकोडिये !-गोबर बड़े काम
की चीज़ होती है। पिछले व्यंग्य में जब "गोबर माहात्म्य" लिख रहा था तो एक बात छूट गई था ।यही गोबर ..गोईठा अमेरिका
में या विदेशों में बसे भाइयों की पहचान
बताती है कि आप भारत के किस क्षेत्र से आते है ।
पिछली बार , इसी ’गोईठा’
शब्द को अचल वर्मा जी ने पकड़ लिया था। बाद में पता चला कि वह भाई साहब उत्तर भारत के
किस क्षेत्र से आते है । बड़ी ईमानदारी से उन्होने स्वीकार किया था ।प्रमाण स्वरूप ’काव्यात्मक
स्वीकारोक्ति ’नीचे है
जी, हाँ :आनन्द जी!
मैं उसी क्षेत्र से आता हूँ जिसमें लिट्टी का मोल बहुत
भभरी लिट्टी सब एक ही हैं पर अलग पकाए जाते हैं
लिट्टी के लिए गोईंठा लगता पर भभरी पकती चुल्हे पर
पक जाने पर दोनों में ही घी खूब लगाए जाते हैं --- अचल वर्मा
कुछ पाठकों को गोईंठा..कंडा..उपला..चिपरी .गोहरौल... लिट्टी...भऊर भऊरी..जैसे देशज ,स्थानीय
बोली शब्द से यहाँ क्षणिक असुविधा हो सकती
है ।यह सभी शब्द भोजपुरी प्रदेश [उत्तर प्रदेश के पूर्वाचंल के जिले जैसे बनारस..गाजीपुर.जौनपुर.बलिया..आज़मगढ़ गोरखपुर..आदि तथा बिहार
के कुछ जिले आरा..छपरा..पटना..सिवान..गोपालगंज आदि की स्थानीय बोली की पहचान है । सर्वेमान्य
है ।सर्वग्राह्य हैं
इन शब्दों के बारे में थोड़ा प्रकाश डाल दूँ तो पाठकों को समझने
में सुविधा होगी।
गोईंठा ,कंडा..उपला..चिपरी सब ’गोबर’ के उत्पाद हैं और ग्रामीण
क्षेत्रों में खाना पकाने के लिए ईधन के रूप में प्रयोग होता है । हो सकता है, अन्य
क्षेत्रों में किसी अन्य नाम से पुकारा जाता हो । ग्रामीण इलाकों में ’रसोई गैस’
की पहुँच होने से अब इन सबका ईधन के रूप में प्रयोग भी कम हो गया है।ट्रैक्टर के आने
से पशुधन में कमी आ गई तो गोबर उत्पादन भी
कम हो गया । मगर बिल्कुल खत्म नही हुआ है ।कुछ लोगों के दिमाग में अब भी पाया जाता
है।तथाकथित बुद्धिजीवियों के दिमाग में उत्पादन बढ़ गया है आजकल ।कभी धर्म के नाम
पर ,कभी मजहब के नाम पर ,कभी फ़ितना-फ़साद के नाम पर, कभी कुनबापरस्ती के नाम पर
।कुछ लोगों की तो यही ;जीविका ’है और ’बुद्धिजीवी’ बने हुए हैं। नाम बताऊं
क्या ? मैं अपनी बात नही कर रहा हूँ क्योंकि मैं बुद्धिजीवी नहीं हूँ।
जैसे शुद्ध सोने से जेवरात नहीं बन सकते वैसे
ही शुद्ध गोबर से ये उत्पाद भी नहीं बन सकते अत: इसके बनाने में कुछ खरपतवार .भूसा आदि गोबर
को प्रबलित करने लिए मिलाते है । यही कारण
है कि दिमाग में गोबर भरा है के पर्याय के रूप में दिमाग में भूसा भरा है क्या -का
भी प्रयोग करते हैं कभ कभी ।फिर गोबर की उस रचना को धूप में पकाते है । इसे बनाने की
कला को ’पाथना’ कहते है राबड़ी देवी जी इस कला की विशेषज्ञ है । उत्पाद की शकल से उत्पाद के नाम निर्धारित है जैसे
कंडा..उपला चिपरी..।
जब उत्पाद बहुत हो जाता है तो भंडारण की समस्या
हो जाती है । इस के लिए वातानुकूलित कमरे की ज़रूरत नहीं पड़ती, खुले मैदान
में धूप में ही एक के ऊपर एक घेरे में तह
दर तह सजा कर कुछ कुछ गुम्बद का रूप देकर या फिर कभी कभी पिरामिड का रूप देकर
भण्डारण कर देते हैं। फिर ऊपर गोबर के लेप से लीप कर ’सील’ कर देते हैं कि बरसात में
भी सुरक्षित रहे। इसे शुद्ध घरेलु ’ग्रामीण -तकनीक" कहते है और गुम्बदनुमा या
पिरामिडनुमा आकृति या संरचना को "गोहरौल’
कहते हैं । देश के अन्य भाग में कुछ और नाम से भी जाना जाता होगा ।कच्चा माल
’गोबर’ ही रहता है।
अचल जी जिसे ’भभरी’ कह रहे है ,हमारे यहाँ उसे ’भऊरी’ कहते
है । भऊर उसे कहते है जब खुले में गोईंठा,,उपला..चिपरी या
कंडा सजा कर आग जलाते है और जिस में लिट्टी पकाते है और जो पकता है उसे ’भऊरी’
कहते हैं जो जलता है उसे ’भऊर’ कहते है। बाक़ी अचल जी ने ऊपर खाने का तरीक़ा तो बता ही
दिया है।
हम समझते हैं, इतना तो आप सभी जानते होंगे। अब
तो लिट्टी 5-सितारा होटलों तक पहुंच गई है ,बड़े लोगों की शादियों तक ,विवाह की बड़ी बड़ी पार्टियों
तक पहुँच गई है ।सुना है विदेशों में भी पहुँच गई है अब तो। फ़र्क़ इतना ही है कि ग़रीब
इसे मज़बूरी में खाता है ,अमीर इसे शौक़िया खाता है ।
खैर!
इसी ’भऊरी’ पर एक दिलचस्प घटना याद आ गई।
बात उन दिनों की है जब मैं जोरहट में पदस्थापितd था। जोरहट ,ऊपरी असम का
एक छोटा सा जिला है। इस जिले में असम राईफ़ल की यूनिट,.कॄषि विश्विद्यालय ,चाय रिसर्च
इन्स्टीच्युट आदि भी है । जोरहट की पहचान इस बात से भी है कि भारत का नदी के मध्य स्थिति
सबसे बड़ा I’आइलैण्ड’ [मजौली ] है जो ब्रह्मपुत्र नदी के बीच में अवस्थित है ।हालाँकि ब्रह्मपुत्र को नदी
नहीं नद्य मानते हैं।
छोटा शहर होने के कारण जितने भी ’पूर्वी उत्तरप्रदेश’ या
बिहार के अधिकारीगण जोरहट में पदस्थापित थे ,एक स्वाभाविक लगाववश आपस में आना जाना
लगा रह्ता था। महीने-दो महीने में एक बार सहभोज का आयोजन भी हो जाता था।
तय हुआ कि इस बार का आयोजन एक अधिकारी सिंह साहब
के घर पर रखा जाय जिसमे ’लिट्टी चोखा चटनी ’ का इन्तजाम किया जाय । बात
तय हो गई ।
,मगर "गोईंठा’??
गोईठा असम में ? तय हुआ कि सिंह
साहब का एक आदमी जो असमिया था और देहात से आता था ,वही अपने गाँव से लेता आयेगा।
सिंह साहब ने उसे बुला कर "गोईंठा’
लाने को कहा। पहले तो वो असमिया भाई ’गोईंठा’ समझा नहीं तो सिंह
साहब ने समझाने की गरज से उसे अँगरेजी भाषा में समझाया -" काऊ डंग
ड्राई-ड्राई !![यानी गाय का गोबर सूखा-सूखा-। कारण की अँगरेजी शब्दकोश में चिपरी ,कंडा
गोईंठा उपला का कोई शब्द ही नहीं मिला ।आप भी खोजिएगा ,मिल जाए तो बता दीजियेगा ।
"
शायद वो समझ गया और ’हो हो ’[यानी हाँ
हाँ] कह कर चला गया ।
दूसरे दिन अपनी समझ से वो ’गोईंठा’ ले आया और मेम साहब [मिसेज सिंह] से पूछा-मेम
स्साब ! कहाँ रख दे ?
मेम साहब चटनी बनाने में व्यस्त थीं तो बिना देखे ही बोल दिया - ’आउट-हाउस’
के बरामदे में रख दे।
और वह रख कर चला गया ।
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शाम के वक़्त ,हम सभी सिंह
साहब के घर पर यथा समय एकत्रित हुए। ’भऊर’ सजाने और लगाने का काम ,मुझे ही सौंपा
गया । ,शायद इस काम में मेरी योग्यता या दक्षता देख कर ।
भाभी जी ’गोईंठा’ किधर है?-मैने पूछा
वो सर्वेन्ट क्वार्टर के बरामदे में होगा , भाई साहब !
मै वहाँ गया ।,इधर-उधर देखा॥,’गोईंठा’
तो कहीं दिखाई नहीं दिया। अलबत्ता 4-5 पालीथीन दिखाई दिये जिसमे गीला गीला गोबर था। पर,गोईंठा नही
था।
जब यह बात मैने सब को बताई तो सभी लोग हैरान। अब ’लिट्टी’
कार्यक्रम का क्या होगा ,खटाई में पड़ता नज़र आ रहा था। वह असमिया भाई जी तलब किए गए -" भाई! गोईठा किधर है?"
’उधर पालीथीन
में है ,स्साब । आप ही ने कहा था "काऊ डंग ड्राई-ड्राई ! तो मैने सोचा स्साब को ’ड्राइ
ड्राइ ’ माल क्या देना ’फ़्रेश-फ़्रेश
’ताजा ताजा माल ले चलते हैं ।
अब उस ’लिट्टी,भऊरी’
कार्यक्रम का क्या हुआ, यह न पूछिये ।
इसीलिए कहता हूँ
-गोबर और गोईंठा मे फ़र्क़ है ।
अस्तु
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