एक व्यंग्य व्यथा : ग्लीसरीन के आँसू
" आइए आइए पाठक
जी ! बड़ी लम्बी उमर है आप की ।आप ही को याद कर रहा था"-मिश्रा जी ने अपने
ड्राईंग रूम सोफ़े में धँसे धँसे
स्वस्तिवाचन और आशीर्वचन किया। देखा कि वह टी0वी0 देख रहे थे।
"देखिए पाठक जी !
क्या हॄदय विदारक दॄश्य है -मजदूरों के पलायन का । प्रवासी मजदूरों का । पैदल
ही चल दिए गाँव की ओर --हज़ारों मील का सफ़र
-देखा नहीं जा रहा है
।छोटे छोटे बच्चे -माँ की गोद में ,पिता के कंधे पर , एक
बच्चा तो ट्राली वाले सूट्केस पर लेटा हुआ चला जा रहा है ।
भूखे नंगे चले जा रहे
है इस तपती सड़क पर । पाठक जी यह देखिए कैसे एक बच्ची अपने पिता को साइकिल
पर बैठा कर अपने गाँव
ले जा रही है ---शीश पगा न झगा तन पे --भूखे प्यासे लोग - " "बायीं
" कोहनी पर टिके हुए।जब ’वाम पन्थी ’ विचारधारा जोर मारती है तो
बाय़ीं कोहनी पर टिक
जाते है । कहते हैं -पाठक जी सूरज की धूप और सर्वहारा की भूख इस दुनिया को झुलसा
सकती है ।
वह टी0वी0 के फ़्रेम दर फ़्रेम दृश्य समझा ही रहे
थे कि अचानक
बिजली चली गई ।पावर कट
हो गया ।-
-" लो पावर’ चला
गया ! ये पावर कम्पनियाँ भी न॥ साल भर का बदला इसी गरमी में लेती है ।हर साल बिजली का रेट
बढ़ा देते है और देने के नाम पर घंटा । कितनी उमस है आज । और यह गरमी कि बस आग
ही बरसा रही है ।झुलसा रही है ।
’ बेटा बबलू ! ज़रा इन्वर्टर
तो चालू कर दे बेटा --ज़रा पंखा तो चले !--अब "दाएँ " पर कोहनी पर टिके टिके
मिश्रा जी ने आवाज़ लगाई।
जब ’दक्षिंण पन्थी ’
विचारधारा जोर मारती है तो दायें कोहनी पर टिक जाते हैं
जब किसी कोहनी पर नहीं टिके होते हैं--तो हवा का ’रुख’ देखते है कि किस साइड कोहनी
टिकाना ठीक रहेगा।
’पापा ! इन्वर्टर बैठा
हुआ है । बैटरी चार्ज नही हुआ है ।--बेटे ने घर के अन्दर से आवाज़ लगाई
’ लगता है ये बिजली
वाले जान लेकर ही छोड़ेगे मेरा’--चलिए तबतक ’आप को इन प्रवासी मजदूरों पर एक कविता सुनाते है । ’- मिश्रा जी
ने
अपना भार ’बाएँ’ कोहनी पर टिका दिया ।
’पाठक जी ! ये मजदूर
भी क्या जीवट वाले है ? सुनिए
-पैरों में इनके छालें
हैं
-क्या ये भी जीवट वाले
है
-भूखे पेट चले घर को
-न पैसे हैं ,न निवाले है
कविता सुनाने के बाद ,मिश्रा जी के चेहरे पर एक ’आत्म-मुग्धता ’
का भाव उभर आया । बड़े कातर नयनों से मुझे देखा कि मैं ’वाह वाह ’ कर दूँ
कुछ तालियाँ बजा दूँ
--
मैं अब चलने को उद्दत हुआ तो मिश्रा जी ने टोका
--कहाँ चले महराज ! एक और कविता सुनते जाओ इन मजदूरों की बेबसी पर --"
’बाद में कभी सुन
लूँगा ’
कनखियों से देखते हुए
व्यंग्यात्मक भाव से मिश्रा जी ने चार
लाइन और सुना दीं
" जो भरा नहीं है
भावों से
जिसमें बहती रसधार
नहीं
वह हृदय नहीं है पत्थर
है
जिसमें प्रदेश से
प्यार नहीं
- भाई साहब ! प्रदेश
नहीं --वह स्वदेश है स्वदेश ’- मैने आपत्ति जताई
-सही पकड़ा !
भई मिश्रा जी !
मुझे कवि फ़लाना सिंह के पास भी जाना है कविता सुनने । उनके ह्रुदय में भी
आप जैसी ’रसधार ’ बह रही है ।
सुना सर्वहारा वर्ग के
पोषक है ।
-अरे ऊ का कविता
सुनाएगा ! फ़ेस बुक से चुराता है । ’चोट्टा कहीं का ।-"देखें कह दे कोई इस
सेहरे से बढ़ कर सेहरा "
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मैं बाहर निकल आया ।
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ठीक ही कहा है किसी ने
कोहनी पर टिके हुए लोग,
सुविधा पर बिके हुए
लोग।
करते हैं बात बरगदों
की
गमले में उगे हुए
लोग!!
अस्तु
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