[मैं उस ’गोबर’ की बात नहीं कर रहा हूँ जो कुछ लोगों के दिमाग में भरा रहता है । इस बात का भी उल्लेख करना ज़रूरी नहीं कि यह लेखन है या गोबर। फिर भी आप इस में से कुछ ज्ञान की बात निकाल सकें तो यह आप का हुनर होगा...]
".....गोबर भारत की संस्कृति का ही एक रूप है जब त्योहारों पर गोबर से ही घर और चबूतरे लीपे जाते थे ।एक पवित्र स्थान वह गोबर ही बनाता था | गोबर- गणेश की पवित्रता भी गोबर से ही होती थी | गोबर पर बहुत कुछ लिखा जा सकता है | आपने बेबात लिखने का संदेश और विषय परिवर्तन भी किया, आपको बधाई |
. उनके आदेश का पालन करते हुए कुछ लिख रहा हूँ । क्या लिख रहा हूं यह मुझे भी नहीं मालूम । मैने उनको आश्वस्त किया था -किसी दिन दिमाग में ’गोबरईला कीड़ा’-घुसा तो ज़रूर लिखूँगा । सो आज घुस गया।
जयपुर में
बात ’गोबर’ की चली तो गौतम जी ने बड़ी सफ़ाई से ’गोबर’ की पवित्रता ,भारतीय संस्कृति में इसका योगदान ,घर लेपने की शुद्धता.पूजन में इसका प्रयोग,गोबर गणेश .आदि..आदि..लिख कर चलते बने ।शेष,कचरा -टुच्चा वाला पार्ट मुझको लिखने को कह दिया।
ख़ैर उनका हुकुम सर आँखो पर..
इसी ’गोबर’ से 1-2 मुहावरे और भी बने ।अच्छा ख़ासा लेख "सारा गुड़ गोबर हो गया"। मगर गुड़ ही क्यों गोबर हुआ ? खाण्ड ,राब ,भेली भी तो इसी प्रक्रिया से बनाई जाती है। उसे तो कोई नहीं कहता है कि "सारा खाण्ड’ गोबर हुआ। सारी भेली गोबर हो गई । कह भी नही सकता ।हमें लगता है कि गन्ने का रस उबालने की क्रिया में जब कभी [गोबर सा] हल्का हल्का रंग आने लगा होगा और बस गुड़ बनने की प्रक्रिया शुरु होने वाली रही ही होगी कि अचानक कहीं कुछ गड़बड़ हो गया होगा और सारा गुड़ गोबर के रंग जैसा दिखाई देने लगा होगा ।अर्थहीन बेकार, किसी काम का नही रहा होगा ।फ़ेकने लायक हो गया होगा। पाठकों को बता दें कि अभी यह लेख उस अवस्था तक नहीं पहुंचा है।..बाद की बात ख़ुदा जाने ।
गोबर पर एक-दो मुहावरा और देख लें ।
-गोइठा जले, गोबर हँसे; -यह मुहावरा किताबों में ही देखा जा सकता है ।रोज़मर्रा की बातचीत में कम ही देखा सुना जाता है ।अर्थ तो स्पष्ट है ।
मतलब साफ़ है।-आज मैं जल रहा हूँ । कल तुम्हारी भी बारी आयेगी ।जब गोइठा जल ही जायेगा तो वह कौन सा बचा रहेगा ? कल तू भी गोइठा बनेगा ,चिन्ता न कर । भगवान के यहाँ देर हो सकती है ,अँधेर नहीं हो सकता ।
अब विषयान्तर करते हैं-
बात ’गोइठे’ की चली तो ’एस0एम0एस0’ या ’एम0 एम0 एस0’ वाली नई फ़सल को शायद यह भी न मालूम होगा कि ’गोइठा’ क्या होता है? -’उपला’ क्या होता है-?’चिपरी’ क्या होती है,?कंडा क्या होता है ? -’गोहरऊल’ क्या होता है? -’भऊर’ क्या होता है? ’भऊरी’ क्या होती है ? ये यूपी बिहार पूर्वांचल में प्रचलित शब्द हैं।-शब्द शब्द में अर्थ भेद है ।लालू जी की पत्नी ’रबड़ी देवी’ जी की मास्टरी है इस विषय पर ।उनकी इन शब्दों पर गहरी पकड़ है और अनुभव भी।अब ’गैस’ एलेक्ट्रिक ओवेन’” कूकिंग रेन्ज ’के ज़माने में, यह क्या लेकर बैठ गये ’आनन’ जी।
एक मुहावरा यह भी है-गोबर की सांझी भी पहिरी-ओढ़ी अच्छी लगती है [यानी सजावट भी बड़ी चीज़ होती है । सांझी गोबर या मिट्टी की बनी उस प्रतिमा को कहते हैं जिसे लड़कियाँ ’क्वार’ के महीने में खेल और पूजा के लिए बनाती हैं । कुछ लड़कियां तो लाख मेक-अप के बाद भी गोबर की सांझी ही लगती हैं [-दिल कह रहा है ,मैं नहीं कह रहा हूँ ]
-गोबर पर और भी मुहावरें होंगे।
-इतना लिखने के बाद भी गोबर पर “गोबरनुमा” कुछ लिखने की गुंजाइश बची हो तो आप आमन्त्रित है,आगे लिखने के लिए ।
अस्तु
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