एक व्यंग्य
:साहित्यिक खोमचा
"यार मिश्रा !
सोच रहा हूँ ,एक खोमचा मैं भी लगा लूँ ’
’खोsssमचा ?? क्या
?क्या ? क्यों?’-अंधे को
अँधेरे में बड़ी दूर की सूझी ? -मिश्रा जी अचानक मेरे इस
अप्रत्याशित प्रस्ताव से चौंक गए -"पेन्शन बन्द हो गई क्या?’ खोमचा किसका ? दही-भल्ले का?, ’चनाजोर गरम का"?
साहित्य का ,’साहित्यिक खोमचा ’- ।मैने समझाया-"रिटायर होने के बाद खाली बैठा था
सोचा टाइम पास हो जायेगा और हिन्दी की कुछ सेवा भी हो जाएगी ।
आम का आम गुठलियों का
दा्म भी हो जायेगा । -
-गुठलियों का दाम ?? अच्छा तो हिन्दी की सेवा में भी ’दाम ’? व्यापार ?-मिश्राजी ने कहा-’ वैसे ही कम
लोग हैं क्या हिंदी के सेवा करने को ,जो अब तुम चले हो।
ग्राहक कहाँ मिलेंगे ? पानी-पूरी के ,भेल
पूरी के तो शायद मिल भी जाय ।
साहित्यिक ’खोमचे’ के लिए कहाँ मिलेंगे
?
-मिलेंगे मिश्रा ,,खूब
मिलेंगे ! फ़ेसबुक,व्हाटसअप
पर हर दिन कोई न कोई मंच ,महफ़िल ,ग्रुप बना रहा है । कभी कविता के नाम पर ,कभी ग़ज़ल के
नाम पर ,कभी अदब के नाम पर ,कभी
साहित्य के नाम पर ।
मेरे उस्ताद ने कहा था बेटा ! तू जहाँ भी खोमचा लगा देगा ,वहीं 2-4-10 ग्राहक मिल जायेंगे।
फ़ेसबुक पर ,ह्वाट्स पर,ट्विटर पर
,ब्लाग पर हर दूसरा आदमी
ग़ज़ल कह रहा है , शायरी कर रहा है ,दोहा
लिख रहा है ,सबको ’चाट’ की तलब है,छपने
की ललक है।लिखने की ठनक है।
वाह वाह सुनने की ठसक है। मैं भी फ़ेसबुक पर ,’व्हाट्स ’ पर एक मंच बनाऊँगा ।
-तो उससे क्या होगा ?
हिन्दी की सेवा होगी
और क्या ? ग्रुप और मंच बनाने में कौन सा पैसा लगता है । मैं
’ऎडमिन’ बन जाऊँगा बैठे बैठाए ।शान-ओ-शौकत ऊपर से । न हर्रे लगे न फिटकरी, रंग बने चोखा ।
-तो उससे क्या होगा ?
हिन्दी की सेवा होगी
और क्या ? जिसको चाहे ग्रुप में जोड़ लो
--जिसको चाहे ग्रुप से लतिया दो --आत्मसुख मिलता है । जिसको चाहे सम्मनित कर दो
, जिसकी
चाहे टाँग खिंचाई कर
लो --
-तो उससे क्या होगा ?
हिंदी की सेवा होगी और
क्या । जिसको चाहे उसको ’वरिष्ठ कवि’ कह
दो --अज़ीमुश्शान शायर कह दो ।उत्साहवर्धन के नाम पर सबके कलाम को वाह वाह करते रहो
। उम्दा कलाम ।
लाजवाब कविता । यह सब
करने का समय न मिले तो एक ही झाड़ू से -सबका कलाम उम्दा’- कर दो जैसे पंडित लोग एक
ही मन्त्र से -" सर्व देवेभ्यो नम: स्वाहा - कर देते हैं। अपने सदस्यों का सम्मान करूँगा
तो ग्रुप का सम्मान होगा। ग्राहक
भागेंगे नहीं ।
उनकी पुस्तकों का
विमोचन करवाएँगे -- सहयोग राशि लेकर साझा-संग्रह प्रकाशित करवाएँगे--सम्मान समारोह
करवाएँगे- ग़ज़ल सम्राट की उपाधि देंगे--काव्य चेतना शिरोमणि पुरस्कार देंगे---हिंदी
सेवा का प्रमाण-पत्र बेंचेंगे -दो-चार पैसे
तो बच ही जाएँगे ।
-अच्छा ! तो आप इसी
गुठलियों के दाम की बात कर रहे थे ? तो हिंदी की सेवा ?? ऎसे मंचों पर किसी को भाषा की शुद्धता की चिन्ता नहीं ।,वर्तनी का खयाल नहीं
वाक्य विन्यास पर ध्यान
नहीं । जो बोल दिया वही हिंदी, जो
लिख दिया वही साहित्य । छपने की प्यास है। सभी जल्दी में है ।-मिश्रा जी ने अपनी
व्यथा उड़ेली
भई मिश्रा !पहले दाम
फिर काम । हिंदी की सेवा तो भारत सरकार कर रही है न पिछले 65-70 साल से ।
14-सितम्बर है न इस काम के लिए।हाथी के
पाँव में सबका पाँव।
भई पाठक ! एक सलाह दूँ ? हिंदी पर बड़ी कृपा होगी -मिश्रा जी ने कहा
हाँ हाँ !-मैने चहकते
हुए कहा-"कहो मित्रवर !कहो ! नि:संकोच कहो !
-तुम तो बस खोपचे में एक खोमचा लगा ही लो । हिंदी
सेवा का नही , ’चनाजोर’ गरम का ।गाते हुए बेचोगे तो ज़्यादा बिक्री होगी ज़्यादा फ़ायदा होगा।
चनाजोर गरम बाबू मैं
लाया मजेदार -चना जोर गरम
मेरा चना बना है आला
मैने डाला गरम मसाला
मेरा चना बना
चुटकुल्ला
जिसको खाए हाजी
मुल्ला--चना जोर गरम ।
इससे पहले कि मैं अपनी
"चरण-पादुका " ढूँढता , उससे
पहले ही मिश्रा जी नौ दो ग्यारह हो गए ।
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