मंगलवार, 6 अक्तूबर 2020

एक व्यंग्य 67 : किस्सा-ए-जनाब

 
                        ’किस्सा--जनाब ----
 
       किसी मंच पर ,एक सदस्य ने किसी सदस्य को ’जनाब’ से मुख़ातिब कर दिया फिर क्या हुआ बताने की ज़रूरत नहीं...]
आज की बेबात की बात का आगाज अकबर इलाहाबादी के एक तर्मीम शुदा शे’र से करते हैं...
 
हंगामा है क्यूँ बरपा  ’जनाब’ ही तो कह दी है
डाका तो नहीं डाला ,चोरी तो नहीं  की है
 
बचपन में माँ एक किस्सा सुनाती थी ।माँ तो अब रही नहीं , किस्सा रह गया। भगवान उनकी आत्मा को शान्ति प्रदान करें।
किस्सा अलमुख़्तसर यह कि एक देहाती आदमी कहीं जा रहा था।  रास्ते में  एक मौलवी साहब से मुलाक़ात हो गई ।मौलवी साहब ने बड़े तमीज--तहजीब से उस देहाती का हाल-चाल पूछ लिया -" कहिए जनाब ! कैसे मिजाज़ है?
फिर क्या था ! देहाती भाई ने ’जनाब’ का मतलब समझा नही सो  भड़क उठे। बोले- देखिये मौलवी साहब ."जनाब’ अगर गाली हुई तो तू जनाब ,तेरा बाप जनाब तेरी माँ ’जनुबिया’
देहाती भाई ने अपने भाषा-ज्ञान से ’जनाब’ का स्त्रीलिंग ’जनुबिया’ बना दिया ।ज्ञानी आदमी थे ।
 
       सोचा -’जनाब’ शब्द का स्त्रीलिंग [मुअन्नस] क्या ’जनुबिया’ हो सकता है? नहीं हो सकता तो फिर क्या हो सकता है ? लुग़त [उर्दू डिक्शनरी] में देखा -जनुबिया तो नहीं मिला ।अगर किसी भाईजान को मिल जाय तो आगाह करा देंगे। मगर जो मिला वो दिलचस्प मिला ।उर्दू-हिदी शब्दकोश ’[संकलनकर्ता- मुहम्मद मुस्तफ़ा खाँ ’मद्दाह ’] देखा।मद्दाह साहब का शब्दकोश काफी प्रामाणिक माना जाता है। और है भी ।अबतक इसके 11- संस्करण [2006] प्रकाशित हो चुके हैं। मेरे पास 5-वाँ और 11-वाँ संस्करण है। और इन दोनों संस्करणों में ’जनाब’ को ’अरबी’ शब्द बताया गया है और वह  स्त्रीलिंग [मुअन्नस] है ।दोनों में एक ही अर्थ दिया हुआ है - ड्योढ़ी,चौखट आस्तान:,सम्मुख,सामने,श्रीमान,महोदय ,महाशय,दरगाह ,आश्रम वगैरह वग़ैरह। शब्द स्त्रीलिंग है-तो स्त्रीलिंग का स्त्रीलिंग क्या होता। परन्तु इसका प्रयोग हमेशा किसी ’पुरुष’ के सम्मान ही करते हैं। यह भी क्या इत्तेफ़ाक़ है ! शब्द ’स्त्री-लिंग’--प्रयोग पुरुष वर्ग के लिए ।
उस देहाती भाई ने जिस  ’जनाब’ से ’जनुबिया’ शब्द बनाया था, वह शब्दकोश में नहीं मिला। हाँ ’जनूबी’ ज़रूर मिला जिसका मतलब होता है -’दक्षिण दिशा ’का ।
हो सकता है कि  मौलवी साहब का परिवार गाँव के दक्षिण दिशा [जनूब]  में ही रहता हो और देहाती भाई ने यही समझ कर ’जनुबिया ’कहा हो।
ख़ैर।
       इसी ’जनाब’ शब्द पर एक किस्सा इस ग़रीब का भी बर्दास्त कर लें ।
बात इब्तिदाई दिनों की है ।शुरू शुरू में जब मैं अपने आप को ’ग़ालिब’ से थोड़ा कम समझता था । ख़ैर अब मुझे मालूम हुआ कि ’चिरकीन’ मियां भी मुझसे कहीं ज़्यादा अच्छी शायरी कर लेते थे। अपने होने वाले उस्ताद पर अपना उर्दू ज्ञान बताने के लिए कि यह हक़ीर भी ज़रा शे’र-ओ-सुखन से .उर्दू से ज़ौक़-ओ-शौक़ फ़र्माता है ।, इस गरज़ से पहले ही ख़त--किताबत में " उन्हें ’ज़नाब’ से मुख़ातिब किया । पाठकगण कॄपया ’ज’ के -नुक़्ते पे ध्यान दें।मुझे लगा कि ’ज’ को ’ज़’ कहने से सामने वाले साहब . मेरे इल्म--उर्दू से ज़्यादा मुत्तस्सिर [प्रभावित] होंगे । मैं ही  क्या ,बहुत से लोग ऐसा ही सोचते हैं।
वो तो भला हो ’उस्ताद’ का कि बड़ी मुहब्बत व शिद्दत से मुझे ’नुक़्ते’ का ’नुकता’  समझाया ।पाठक गण फिर ’क’ पर नुक़्ते पर ध्यान दें । नतीज़ा यह रहा कि बाद इसके उन्होने मुझे न कभी अपना ’शागिर्द’ बनाया और न  कभी अपने को उस्ताद माना । शायद मेरे नुक़्ते की ना-अहली देख ली होगी । तब से लेकर आजतक ’एकलव्य’ -सा ’सर-संधान’ कर रहा हूँ ।यही वो ’नुक़्ता’ है जिसने ’ख़ुदा’ को ’जुदा’ कर दिया ।
ख़ुदा ख़ैर करे ।
’ज़नाब’ से ’जनाब’ तक [-ज- के नुक़्ते पर धयान दें ]आने में मुझे 3-साल लग गये ।यानी कि हरूफ़--तहज़्ज़ी और उर्दू स्क्रिप्ट [रस्म उल ख़त ] में लिखी किताब पढ़्ने मे और ’आख़िरी वक़्त में मुसलमां’ -होने में। जोड़-तोड़ कर पढ़ ही लेता हूँ। भले ही  मैं ’वह  अजमेर गया ’  को "वह आज मर गया’ जोड़ तोड़ कर पढ़ लेता हूँ  
अरे ! बात ’जनाब’ की कर रहे थे। यह क्षेपक बीच में कहाँ आ गया॥
 
                    हाँ तो मैं कह रहा ’शब्द’  स्वयं में ग़लत नही होता है ।..ग़लत होती है हमारी सोच का .बात कहने के सलीके का ।कहने के .लहजे और तरीक़े का । हर ’शब्द’ खुद अपना अर्थ रखता है ।
क्या ’संकल्प’, निश्चय, प्रण,प्रतिज्ञा, शपथ सब एक ही हैं ? क्या इनके अर्थ या भाव में कोई भेद नहीं ?
या फिर भय ,आतंक,कातरता, डर,भीति, भीषिका शब्द सब एक ही हैं ? क्या अनुराग , प्रीति, प्रेम, वात्सल्य, स्नेह शब्द एक हैं ? नहीं । सबके भाव में ,सब की विविक्षा में  भेद है। ज़रूरत है तो इनके सम्यक प्रयोग की
 
कुँअर बेचैन साहब का एक शे’र है ---
 
ये लफ़्ज़ आइने हैं मत इन्हें उछाल के चल
अदब की राह मिली है तो देखभाल के चल
 
आप किस अन्दाज़ से किस लहजे से शब्द का प्रयोग कर रहे है ।कभी कभी अनजाने में ग़लत प्रयोग हो जाता है। सायास नहीं है तो फिर ये ’दोष’ नहीं है । एक "दोष’ निवारण  मन्त्र जाप [सारी ] कह देने से मुक्ति मिल जाती है फिर वह व्यक्ति अनन्त सुख को प्राप्त होता है ।
       हिन्दी में एक मुहावरा चलता है- ’मुखे पान मुखे पनही" । मतलब साफ़ है। इसी मुखारविन्द से अच्छे "शब्द’ कहेंगे तो स्वागत में ’पान’ [ताम्बूल] मिलेगा और गन्दा शब्द या गन्दे तरीक़े से  कहेंगे तो ’-पनही’’ मिलेगी। ’पनही’ शब्द -बस समझिए की जूती या सैंडिल का कुछ बड़ा रूप होता है । -अगर  ’पनही’ कभी सैण्डिल’ होती तो उसके पाने का सुख बता सकता हूँ ।2-4 बार यह सुख प्राप्त  कर चुका हूँ।-’द्वि-अर्थी’ वाक्यों के सन्दर्भ में ।
       एक शब्द है -’भाई’। बहुत प्यारा शब्द है ।इसी सन्दर्भ में --भाईजान’--.भाई जी-- भाई साहब ,भईया भी है ।[सुना है कहीं कहीं ’भईया’ और भाई शब्द अच्छा नहीं मानते।
किसने बिगाड़ दिया इन शब्दों ।किसने बदल दिये इन शब्दों के मानी को । शब्द-कोश ने तो नहीं बदला ,हमने बदला । हमारे कामों ने बदला ,हमारे बोलने के लहज़--अन्दाज़ ने बदला ।- दुबई के ’भाई’ का फोन आता है\ अपुन का खलास कर देगा उसे। शब्द एक है -बोलने का अन्दाज़ अलग है
दादा’ कितना सम्मानजनक शब्द है ।पूजनीय व आदरणीय। मगर वो मुहल्ले का ’दादा’ बने फिरता है क्यों ? क्यों कि हमने यह लक़ब [उपाधि] दिए उसे और  वह ’दादागिरी’ करने लगा । हम क्यों नहीं कहते कि वो ’गुण्डा’ है मवाली है । शब्द एक है  .बोलने का अन्दाज़ अलग है
और ’गुरू’ ?
       इस से ज़्यादा पवित्र शब्द और क्या हो सकता है ।गुरू गोविन्द दोऊ  खड़े... ।गोविन्द से भी ऊपर। मगर प्रयोग में - वाह ’गुरू’ बड़े गहरे हो बड़े ’गुरू’ बने फिरते हो—गुरु-घंटाल हो तुम तो । बात लहज़े की है। अन्दाज़--बयां की है
       हाल ही , में एक पार्टी के वरिष्ठ वयोवृद्ध नेता ने एक महिला नेत्री को उन्हीं की उपस्थिति में -उन्हें " टंच माल’ कह दिया ।दरअस्ल वह कहना चाहते थे कि उनकी यह सहकर्मी महिला 100% सच्चा और खरा समर्पित सामाजिक कार्यकर्ता हैं।सही भावना को ग़लत ढंग से कह दिया । "टंच माल" तो आप समझते हैं न?
       एक सदस्य ने तो भरी संसद में पीठासीन महिला को ’नज़र से नज़र मिला कर बात करने की ’ बात कह दी । आप ने भी सुना होगा। देखा भी होगा । अगर नहीं देखा -सुना है तो ’यू-ट्यूब’ पर मिल देख लीजियेगा ।
       किस्सा कोताह यह कि शब्द गलत नहीं है। भावना ग़लत हो जाती है तो अर्थ ग़लत हो जाते हैं ।
अगर भावना शुद्ध है तो शब्द भी शुद्ध है
मौलवी साहब ने ’जनाब’ -शब्द शुद्ध भाव से ही प्रयोग किया था मंशा ग़लत नहीं थी ।
अस्तु
 
 
 
 

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