[नोट : इसी मंच पर दिनांक 01-09-20202 को एक पत्र
-’कविता- चोर" महोदय के नाम लिखा था जिसे आप लोगों ने पढ़ा भी होगा ।
उन्ही ’चोर श्रीमान जी ’ का उत्तर अब प्राप्त हो गया है । पाठकों का
आग्रह था कि वह पत्र भी प्रकाशित करूँ -सो कर रहा हूँ ।
एक व्यंग्य :
अनाम "कविता-चोर" जी का उत्तर
आदरणीय श्रीमन !
दूर से ही नमस्कार
पत्र मिला
। समाचार जाना ।आरोप भी जाना ।
इधर ’करोना’ का प्रकोप कम नहीं हो रहा है , हम सब साथी गण अपने अपने अपने घरों में कैद हैं । मंच, मुशायरों से भी ’माँग नहीं आ रही है। घर में बैठे बैठे ’आन लाइव---वाच पार्टी -- फ़ेसबुक-पर अपनी ही कविताओं का कितनी बार पाठ करें?
अपनी शकल देखते
दिखाते झाँकते झाँकते मन उब सा गया है ।हाँ , कुछ वीर बहादुर है
जो
"फ़ेसबुक लाइव" में अभी तक डटे हैं ।हर रोज़ सज-सँवर कर चेहरा दिखाते रहते
हैंऔर आँख बन्द कर झूम झूम कर कविता-पाठ करते रहते हैं।
तो हे सयाणॆ श्री !
पत्र में तुमने जिस भाषा का प्रयोग किया है उससे पता
चलता है कि तुम्हारी शिक्षा-दीक्षा ज़रूर किसी "मुन्यसपिल्टी
स्कूल" में हुई होगी । अगर ’कान्वेन्ट स्कूल"
में हुई होती तो ’अंगरेजी’ में गाली देते । डिग्री पाना अलग बात है-’शिक्षित होना अलग बात है-।’आदमी होना अलग बात है -शायर होना तो
ख़ैर दूर की बात है ।। भारत सरकार को नई शिक्षा नीति में मोदी
जी को इस पर विचार करना चाहिए कि "आनन्द" जैसा आदमी भी एक आदमी बन सके ।
आप ने कविता चोरी का जो आरोप मुझ पर लगाया है ,वह झूठ है ।मीडिया ने , तुम ने, सब ने तोड़-मरोड़ कर झूठा तथ्य पेश किया है ।मुझे अपनी सफ़ाई का मौक़ा दिए बिना ही ’चोर’ ठहरा दिया। यह कहाँ का न्याय है ?यह न्याय प्रक्रिया के मूल सिद्धान्तों के विरुद्ध है । वस्तुत: तुम्हारी उस ’तथाकथित’ कविता के -नीचे मैं अपना नाम और नाम के आगे ’प्रस्तोता"-या -"प्रस्तुतकर्ता" -लिखने ही जा रहा था कि लोगों ने चोर चोर कह कर शोर मचाना शुरु कर दिया। कुछ लोग थाना-पुलिस की बात करने लगे तो मैं छोड़ कर भाग गया
। प्रस्तोता छूट गया -- मेरा नाम रह गया-।
चिराग़ हसन ’हसरत’साहब ने कहा है-
ग़ैरों से कहा तुम ने, ग़ैरों से सुना तुम ने
कुछ हम से कहा होता , कुछ हमसे सुना होता
तो हे -
तथाकथित काव्य शिरोमणि ! -
तुम्हारी
वह घटिया कविता चुरा कर मैं पछता रहा हूँ ।दो कौड़ी की कविता थी ।ऐसी कविता तो कौड़ी
के तीन मिल जाती हैं। उसे सुनने को कोई तैयार नहीं । चाय पिलाने की शर्त पर भी कोई सुनना नहीं चाहता है।।पैसा देकर मैं ’सम्मान’
तो करा सकता हू।मगर पैसा देकर कविता नही सुना सकता ? राम ! राम!
राम!
और वो कविता
! धत !
न वो ज़मीं
के लिए,है न आस्मां के लिए
तेरा कलाम
है महज ’ख़ामख़्वाह’ के लिए
बहुत से लोग
अपने नाम के आगे -शायर अमुक सिंह- गीतकार प्रमुख शर्मा--ग़ज़लकार कुमुक वर्मा--लिख लेते
है।
ऐसे लोगों
की कविताएँ मैं नहीं चुराता। जानता हूँ वो क्या लिखते है । उनकी चुरा कर उन्हें और
क्यों मशहूर करना कराना ?
तुम्हारी कविता इस उमीद से चुराई थी कि गली कूचे के
अनाम कवि हो -क्या शोर मचाओगे ।मशहूर हो जाओगे।
इब्ने इन्शा साहब मरहूम ने कहा था
इक ज़रा सी बात थी जिसका चर्चा पहुँचा गली
गली
तुम गुमनामों ने फिर भी ऐहसान न माना यारों का
इन्शा साहब
ने तो ’हम’ लिखा था --’तुम’-तो मैने कर दिया
कि बात ज़रा साफ़ रहे।
हे ढक्कन श्री ! माटी के माधो !
पत्र में तुमने
पूछा है कि मैं -कहानी--नाटक -उपन्यास
क्यों नहीं चुराता ?भाई मेरे! साहूकार, सुनार के घर से भूसा का झौआ चुरायेंगे
क्या --ख़ाद की बोरी उठायेंगे क्या ?तेली के घर से ’कोल्हू’ सर पे उठा कर ले जायेगा क्या ?जल्दी जल्दी
में जो माल-पत्तर मिलेगा वही उठायेगे न ? तुम्हारे ब्लाग से कविता मिली सो उठा लिया।
कोल्हू तो समझते होंगे ? इतनी ’व्यंजना’ तो समझते होंगे? कोल्हू के बैल जो ठहरे !
तो हे कलम घिसुए महराज जी !
अब में अपनी औक़ात पर आता हूँ-
- तेरी चिठ्ठी से अपुन का माथा सटकेला है --कलम थकेला
है - करोना से डरेला है, वरना--
अबे ओ सयाणॆ !---ज़ादे शान-पट्टी मत दिखा --थाना पुलिस करेगा --तो
अपुन का तेरी अख्खा क़लम उठा लेगा
--न रहेगा बाँस न बाजेगी बँसुरी।भेजा में घुसेला क्या
!
जा अपना काम कर !फिर चिट्ठी मत लिखना ।
तेरा --
शुभ चिन्तक
-अनाम-
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-आनन्द.पाठक--
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