आलू-प्याज-टमाटर [लघु व्यंग्य-कथा ]
कभी प्याज़ के भाव आँख दिखाते हैं तो कभी ’टमाटर" । सरकार इनके भाव रोकने के लिए "युद्ध स्तर" की तैयारी करती है । इतनी तैयारी तो सरकार पाकिस्तान और चीन के घुसपैठ रोकने भी नहीं करती है । अभी प्याज को ठीक किया नहीं कि आलू ने आँख दिखाना शुरु कर दिया । अभी आलू को पकड़ा तो अब टमाटर । टमाटर 100/- के पार जाने के तैयारी कर रहा है । अब सरकार के "युद्ध स्तर" की तैयारी का मुंह टमाटर की ओर मुड़ गया । पाकिस्तान समझ गया कि अभी भारत की "युद्ध स्तर की तैयारी" टमाटर की तरफ़ है अत: पाकिस्तान सीमा पर 10-20 घुसपैठिये भेज दिया। चीन ने घुसपैठ कर दिया।
हमें तो इस "टमाटर" भाव वृद्धि में विदेशी शक्तियों का हाथ नज़र आ रहा है कि इस टमाटर की औक़ात कि 5/- किलो वाली हैसियत की सब्ज़ी 100/- किलो में बात करे? ’विदेशी शक्तियों का हाथ" -वाली थ्योरी भारत में ख़ूब चलती है ।जब चाहे तब चला दो। विदेशी शक्तिया सोचती हों कि भारत सरकार के ’युद्ध स्तर ’ की तैयारी को इसी ’आलू-प्याज़-टमाटर ’ के भाव में उलझाये रहो कि इधर देखने की फ़ुरसत ही न मिले। फिर जनता ,अपनी सरकार को कोसना छोड़ -विदेशी शक्तियों को कोसना शुरू कर देती है। जनता भी खुश -सरकार भी ख़ुश। जनता ख़ुश इस लिये कि विदेशी शक्तियों को कोसने से ’देशभक्ति’ का मामला बन जाता है। सरकार ख़ुश इसलिए की क्या टोपी पहनाई है जनता को। और टमाटर खुश इस लिए कि उसका भी भाव बढ़ गया वरना तो लोग उसकी हैसियत को समझ ही नहीं रहे थे और ’टमाटर ’चटनी बना रहे थे अब तक।
इधर, जब से श्रीमती जी ने टमाटर लाने के नाम पर , मुझसे बार बार पैसे माँगना शुरु कर दिया तभी मेरे काम खड़े हो गए ,हो न हो ये महिला ज़रूर ’टमाटर’ के नाम से मुझ से छुपा कर कुछ अपने लिए बचत कर रही होगी। पिछले महीने ही कोई साड़ी देख कर आई थी और मैने ’गाँधी जी’ के धोती दर्शन पर व्याख्यान दे दिया था। अपने इस शक को मिटाने के लिये तो ’सी0ए0जी0 [CAG] ko क्या लगाता । उनकी रिपोर्ट भी आती तो कौन सा एक्शन हो जाता ,सो मैने ’ श्रीमती के इस पैसे की माँग की खुद ही आडिट करने की सोची और घोषणा कर दी कि अब ’टमाटर’ मैं ही लाऊँगा।
एक झोला ले कर सब्ज़ी मंडी पहुँच गया
" भैया ! टमाटर क्या भाव लगाया"
"100/-किलो"
"मगर पहले तो ये 10/-किलो बिक रहा था"
टमाटर वाले ने मुझे ऊपर से नीचे बड़े गौर से देखा फिर कुछ सकुचाते हुए पूछा
" स्साब ! आप सीधे ’सतयुग" से " कलियुग’ में पैदा हुए हैं क्या ?"
मैं इसका निहित अर्थ न समझ सका और अपनी मोल-भाव का हुनर प्रदर्शित करता रहा और कहा
" मगर दूरदर्शन वाले तो 80/- किलो बता रहे थे ।"
"तो दूर दर्शन पर ही ख़रीद लो स्साब"
"नहीं नहीं ,मैं तो कह रहा था कि......"
" देखो स्साब ! आप शरीफ़ आदमी दिखते हो ..बोहनी का टैम है ..आप को 90/-लगा देगा ..एक दाम ..बस
मैं "टमाटर" ख़रीद के क्या मरता कि उसके इस शरीफ़ वाले विशेषण पर मर गया । कम से कम दुनिया में एक आदमी ने मुझे "शरीफ़’ समझा।मैने भी अपनी ’शराफ़त’ की लिहाज़ रखते हुए बड़े शान से अपना झोला बढ़ाते हुए कहा
"तो ठीक है ..दे दो 100 ग्राम टमाटर इस झोले में "
टमाटर वाले ने एक बार मुझे ऊपर से नीचे बड़े गौर से देखा फिर कुछ सकुचाते हुए पूछा
"आप हिन्दी के कवि हैं स्साब ?
"हां ,हाँ ,बन्धु ! मगर तुम्हें कैसे पता ?"
" हिन्दी का ’कवि’ इस से ज़्यादा "टमाटर’ ख़रीद भी नहीं सकता"
एक बार फिर मैं इसका निहित अर्थ न समझ सका।
लौट के ’आनन्द’ घर को आये
अब श्रीमती जी फिर से सब्ज़ी लाना शुरु कर दी हैं। शायद साल के अन्त होते होते वो वाली साड़ी खरीद ही लें।
अस्तु
-आनन्द.पाठक-
09413395592
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें