हरहुआ और टी०वी०
किसी गाँव में, एक ज़मींदार साहब रहते थे।काफी लम्बी-चौड़ी ज़मींदारी थी।परन्तु जब से ज़मींदारी उन्मूलन अभियान शुरु हुआ तो उनकी ज़मींदारी ख़त्म हो गई और वह "बाबू-साहब" बन गए।ज़मींदारी तो ख़त्म हो गई परन्तु उनकी "कोठी" का "कोठापन" खत्म नहीं हुआ।स्पष्ट है जब गाँव है,बाबू साहब हैं,कोठी है तो एक अदद ’चरवाहा’ भी होगा।जी हाँ, उनका एक चरवाहा भी था-’हरहुआ’
हरहुआ स्वतन्त्रता से पूर्व भी था ,अब भी है।बाबू साहब की बड़ी लगन व प्रेम से सेवा-सुश्रूषा करता था।बदन दबाने से लेकर तेल मालिश तक।अन्दर से बाहर तक।खेत से खलिहान तक।सुबह से शाम तक।दलान-बैठका की सफाई करना, गाय-गोरू का सानी-पानी करना,लहना-चारा काटना,कुएँ से पानी भरना,चैला-लकड़ी की व्यवस्था करना उसकी नित्यप्रति की दिनचर्या थी।फिर खेत पर जाना, हल जोतना,जुताई-बुवाई में लगे रहना उसके जीवन शैली का एक अंग था।जाड़ा-गर्मी-बरसात सब समान।बिना किसी हील-हुज्जत के ,प्रसन्नचित्त हो कार्य में व्यस्त रहता था। कभी मुँह से आवाज़ भी नहीं निकालता था।निकालता तो बस -’हाँ मालिक! हाँ हुज़ूर!’बाबू साहब इसे स्वामी-भक्ति मानते थे और हरहुआ इसे अपना सौभाग्य। माने भी क्यों न! हरहुआ का बाप भी इसी कोठी की चौखट पर माथा टेकता था ,आज वह टेक रहा है।बाबू साहब ने इसको शरण दिया है। पीढ़ियों की स्वामी-भक्ति है,बाबू साहब का वरद-हस्त है
भारत स्वतन्त्र हुआ परन्तु हरहुआ नहीं। बाबू साहब की ज़मींदारी ख़त्म हो गई परन्तु हरहुआ की चरवाही नहीं। बाबू साहब की कोठी आज भी खड़ी है ,हरहुआ आज भी ’चरवाहा’ है।उसकी झोपड़ी आज भी अछूती है नई सुबह की नई रोशनी से।वह आज भी अनभिज्ञ है नई हवाओं के नए झोकों से। उसे आज भी मालूम नहीं शहर किधर जा रहा है ,लोग किधर जा रहे हैं! अगर कुछ मालूम है तो बस बाबू साहब का दलान..ओसारा..गाय-गोरू...सानी-पानी....।बाबू साहब आश्वस्त हैं। हरहुआ कितना निश्छल है। भोला है ,छल-कपट रहित,,,सीधा-सादा,प्रपंचहीन...।
....परन्तु बाबू साहब आजकल चिन्ताग्रस्त हैं । चिन्ता इस बात का नहीं कि ज़मींदारी चली गई ।चिन्ता इस बात की नहीं कि नई सरकार आ गई लगान बढ़ गए..चिन्ता इस बात की भी नहीं कि नहरवाली ज़मीन का अधिग्रहण हो गया । चिन्तित इस बात के लिए हैं कि काम-धन्धा निपटा कर हरहुआ अब कहीं आने-जाने लगा है।लाल-झंडियों के साथ उठने-बैठने लगा है।सभा-सोसायटी करने लगा है।बाबू साहब चिन्तित हैं कि कहीं हरहुआ को नई हवा न लग जाए। कहीं नई रोशनी न देख ले। देख लेगा तो जल जायेगा। " बस्तियों में जली रोशनी, रोशनी से जली बस्तियाँ"। हवा लग गई तो गाय-गोरु को सानी-पानी कौन देगा?खेत-खलिहान में काम कौन करेगा?जो काम मेरे बाप-दादा ने नहीं किया लगता है करा कर ही रहेगा -इस ढलती उम्र में ।हरहुआ का लाल-झंडियों से संगत-पंगत ठीक नहीं।यह लोग घास-फूस की तरह होते हैं ,हल्की चिंगारी से भी आग जल्दी पकड़ लेते हैं।हरहुआ का आना-जाना बढ़ने लगा ,बाबू साहब की चिन्ता बढ़ने लगी। एक दिन जिज्ञासावश पूछ ही लिया -
"अरे! शामे-शाम कहाँ जाता है ,हरहुआ?"
"कतहूँ नहीं मालिक ! ज़रा दक्खिन टोला हो आते हैं । हुक्का-पानी हो जाता है बिरादरी में"
बाबू साहब मन ही मन ताड़ गए।हरहुआ घुमा रहा है।काईयां स्साला । समझता है कि हम समझते ही नहीं।अरे हम उड़ती चिड़िया के पर गिन लें।फिर भी मन ही मन छुपाते हुए बाबू साहब ने कहा-
"अरे तो तुम्हरे हुक्का-पानी का इन्तजाम इहां नहीं होता है?तो हम से कहा होता न ,हम यहीं जुगाड़ करवाय दिए होते"।
" ना मालिक ,इ बात नइखे !उहाँ बिरादरी में मन फ़ेरवटो हो जाता है ज़रा गाँव-देश की ख़बरो मिल जाती है"
बाबू साहब का अनुमान ग़लत नहीं था ।इसी बात का तो डर था।हरहुआ को गाँव देश की ख़बर नहीं लगनी चाहिये।हरहुआ को इस से क्या मतलब.? कितने बँधुआ मजदूर मुक्त हुए ,जानकर क्या करेगा?इसके लिए स्वामी अग्निवेश जी हैं ,मानवाधिकार वाले हैं ,सिविल लिबर्टी वाले हैं। हरहुआ कुछ छुपा रहा है । बाबू साहब ने पांसा फेंका,अपनी स्वर शैली बदली।कुछ बहलाने ,कुछ फुसलाने के अन्दाज़ में बोले-
"अरे ! तो ई बात है?हमहूँ कहें कि हमरा हरहुआ कहाँ जाता है।अरे गांव-देश के लिए रेडियो है ,मन-फ़ेरवट के लिए टी०वी० है ,हमसे कहा होता तो हम सब यहीं इन्तिजाम करवाय देते"
"हम गरीबन के ई सब कहाँ मयस्सर है ,मालिक !"
"अरे ! का बात करता है रे ?तूँ हमरा आदमी है ,चालीस साल से सेवा-सुश्रूषा कर रहा है ,तुम्हरा लिए हम इतना हू नहीं कर सकत हैं’- निशाना सही बैठा। बाबू साहब ने वक़्त की नज़ाकत समझी।
हरहुआ की झोपड़ी में टी०वी० लग गई। अब वह गाँव-देश की ख़बर सुनने बाहर नहीं जाता।काम-धन्धा निपटा कर रोज़ देखता है टी०वी०।देश कितनी उन्नति कर रहा है।हर हाथ को काम मिल गया,हर ग़रीब को मकान मिल गया।प्रधानमन्त्री रोजगार योजना के कितने आयाम .सड़क योजना...नरेगा..अन्त्योदय योजना..खाद्दान्न योजना...।हर ग़रीब को ऋण..फसलों का बीमा..अपनी सुरक्षा जीवन बीमा..जीवन के साथ भी..जीवन के बाद भी ..।खेतों में ट्रैक्टर ,नलकूपों में पानी ,.अहा क्या धार है नहरें भरी हुई ...हर खेत में पानी ही पानी ..हरियाली ही हरियाली । अथाह पैदावार अथाह उत्पादन..चारो तरफ़ हँसते चेहरे ,,कोई भूखा-नंगा नहीं। कितनों को ग़रीबी रेखा से ऊपर उठाया हमारी सरकार ने । आँकड़े ही आँकड़े -हरहुआ टी०वी० देख रहा है ।एक पर्दा-सुख से आनन्द विभोर हो जाता है।प्रसन्नता की लहर दौड़ जाी है ,बदन में एक सुरुहरी पैदा होती है । सोचता है -दक्खिन टोला वाले कुछ नहीं जानते । जानेगे भी कैसे? टी०वी० देखेंगे तब न। बाबू साहब ने बड़ी किरपा की और मन ही मन उनके प्रति श्रद्धानत हो जाता है।
हरहुआ टी०वी० देखता है । चित्रहार देखता है .रंगोली सुनता है। गाना गुनगुनाता है -चोली के पीछे क्या है? राम ! राम ! राम! कईसा धरम गिर गया है। सोचता है-"इन्साफ़ के डगर वाला गनवा कहाँ चला गया?अब उसे देश-दुनिया से क्या लेना-देना ? अब वह कहीं नहीं जाता।नहीं होता है अब हुक्का-पानी।नहीं होती अब लाल-झंडियों के साथ संगत-पंगत। ’मेरीआवाज़ सुनो’ देखता है ,अपनी आवाज़ नहीं सुनाता है।कट गया है बिरादरी से। ये लोग ’करईल’के माटी(काली-मिट्टी) हैं -नहीं ’पानी’ मिला तो सख़्त पत्थर हैं ,’पानी’ मिला तो लिज-लिज हैं ।यही है वह क़ौम जो घास-फूस से भी ज़्यादा जल्दी आग पकड़ती है।सबसे ज़्यादा असन्तुष्ट है। यही है वह क़ौम जो थोड़े में ही सन्तुष्ट रहती है
बाबू साहब आश्वस्त हैं। हरहुआ भी ख़ुश ,बाबू साहब भी ख़ुश।रहस्य बाबू साहब जानते हैं।
बाबू साहब कल भी थे ,बाबू साहब आज भी हैं।हरहुआ कल भी था,हरहुआ आज भी है।लोग टी०वी० से चिपके पड़े हैं ।डर है कहीं सारा देश "हरहुआ’ न हो जाये।
अस्तु
-आनन्द.पाठक
किसी गाँव में, एक ज़मींदार साहब रहते थे।काफी लम्बी-चौड़ी ज़मींदारी थी।परन्तु जब से ज़मींदारी उन्मूलन अभियान शुरु हुआ तो उनकी ज़मींदारी ख़त्म हो गई और वह "बाबू-साहब" बन गए।ज़मींदारी तो ख़त्म हो गई परन्तु उनकी "कोठी" का "कोठापन" खत्म नहीं हुआ।स्पष्ट है जब गाँव है,बाबू साहब हैं,कोठी है तो एक अदद ’चरवाहा’ भी होगा।जी हाँ, उनका एक चरवाहा भी था-’हरहुआ’
हरहुआ स्वतन्त्रता से पूर्व भी था ,अब भी है।बाबू साहब की बड़ी लगन व प्रेम से सेवा-सुश्रूषा करता था।बदन दबाने से लेकर तेल मालिश तक।अन्दर से बाहर तक।खेत से खलिहान तक।सुबह से शाम तक।दलान-बैठका की सफाई करना, गाय-गोरू का सानी-पानी करना,लहना-चारा काटना,कुएँ से पानी भरना,चैला-लकड़ी की व्यवस्था करना उसकी नित्यप्रति की दिनचर्या थी।फिर खेत पर जाना, हल जोतना,जुताई-बुवाई में लगे रहना उसके जीवन शैली का एक अंग था।जाड़ा-गर्मी-बरसात सब समान।बिना किसी हील-हुज्जत के ,प्रसन्नचित्त हो कार्य में व्यस्त रहता था। कभी मुँह से आवाज़ भी नहीं निकालता था।निकालता तो बस -’हाँ मालिक! हाँ हुज़ूर!’बाबू साहब इसे स्वामी-भक्ति मानते थे और हरहुआ इसे अपना सौभाग्य। माने भी क्यों न! हरहुआ का बाप भी इसी कोठी की चौखट पर माथा टेकता था ,आज वह टेक रहा है।बाबू साहब ने इसको शरण दिया है। पीढ़ियों की स्वामी-भक्ति है,बाबू साहब का वरद-हस्त है
भारत स्वतन्त्र हुआ परन्तु हरहुआ नहीं। बाबू साहब की ज़मींदारी ख़त्म हो गई परन्तु हरहुआ की चरवाही नहीं। बाबू साहब की कोठी आज भी खड़ी है ,हरहुआ आज भी ’चरवाहा’ है।उसकी झोपड़ी आज भी अछूती है नई सुबह की नई रोशनी से।वह आज भी अनभिज्ञ है नई हवाओं के नए झोकों से। उसे आज भी मालूम नहीं शहर किधर जा रहा है ,लोग किधर जा रहे हैं! अगर कुछ मालूम है तो बस बाबू साहब का दलान..ओसारा..गाय-गोरू...सानी-पानी....।बाबू साहब आश्वस्त हैं। हरहुआ कितना निश्छल है। भोला है ,छल-कपट रहित,,,सीधा-सादा,प्रपंचहीन...।
....परन्तु बाबू साहब आजकल चिन्ताग्रस्त हैं । चिन्ता इस बात का नहीं कि ज़मींदारी चली गई ।चिन्ता इस बात की नहीं कि नई सरकार आ गई लगान बढ़ गए..चिन्ता इस बात की भी नहीं कि नहरवाली ज़मीन का अधिग्रहण हो गया । चिन्तित इस बात के लिए हैं कि काम-धन्धा निपटा कर हरहुआ अब कहीं आने-जाने लगा है।लाल-झंडियों के साथ उठने-बैठने लगा है।सभा-सोसायटी करने लगा है।बाबू साहब चिन्तित हैं कि कहीं हरहुआ को नई हवा न लग जाए। कहीं नई रोशनी न देख ले। देख लेगा तो जल जायेगा। " बस्तियों में जली रोशनी, रोशनी से जली बस्तियाँ"। हवा लग गई तो गाय-गोरु को सानी-पानी कौन देगा?खेत-खलिहान में काम कौन करेगा?जो काम मेरे बाप-दादा ने नहीं किया लगता है करा कर ही रहेगा -इस ढलती उम्र में ।हरहुआ का लाल-झंडियों से संगत-पंगत ठीक नहीं।यह लोग घास-फूस की तरह होते हैं ,हल्की चिंगारी से भी आग जल्दी पकड़ लेते हैं।हरहुआ का आना-जाना बढ़ने लगा ,बाबू साहब की चिन्ता बढ़ने लगी। एक दिन जिज्ञासावश पूछ ही लिया -
"अरे! शामे-शाम कहाँ जाता है ,हरहुआ?"
"कतहूँ नहीं मालिक ! ज़रा दक्खिन टोला हो आते हैं । हुक्का-पानी हो जाता है बिरादरी में"
बाबू साहब मन ही मन ताड़ गए।हरहुआ घुमा रहा है।काईयां स्साला । समझता है कि हम समझते ही नहीं।अरे हम उड़ती चिड़िया के पर गिन लें।फिर भी मन ही मन छुपाते हुए बाबू साहब ने कहा-
"अरे तो तुम्हरे हुक्का-पानी का इन्तजाम इहां नहीं होता है?तो हम से कहा होता न ,हम यहीं जुगाड़ करवाय दिए होते"।
" ना मालिक ,इ बात नइखे !उहाँ बिरादरी में मन फ़ेरवटो हो जाता है ज़रा गाँव-देश की ख़बरो मिल जाती है"
बाबू साहब का अनुमान ग़लत नहीं था ।इसी बात का तो डर था।हरहुआ को गाँव देश की ख़बर नहीं लगनी चाहिये।हरहुआ को इस से क्या मतलब.? कितने बँधुआ मजदूर मुक्त हुए ,जानकर क्या करेगा?इसके लिए स्वामी अग्निवेश जी हैं ,मानवाधिकार वाले हैं ,सिविल लिबर्टी वाले हैं। हरहुआ कुछ छुपा रहा है । बाबू साहब ने पांसा फेंका,अपनी स्वर शैली बदली।कुछ बहलाने ,कुछ फुसलाने के अन्दाज़ में बोले-
"अरे ! तो ई बात है?हमहूँ कहें कि हमरा हरहुआ कहाँ जाता है।अरे गांव-देश के लिए रेडियो है ,मन-फ़ेरवट के लिए टी०वी० है ,हमसे कहा होता तो हम सब यहीं इन्तिजाम करवाय देते"
"हम गरीबन के ई सब कहाँ मयस्सर है ,मालिक !"
"अरे ! का बात करता है रे ?तूँ हमरा आदमी है ,चालीस साल से सेवा-सुश्रूषा कर रहा है ,तुम्हरा लिए हम इतना हू नहीं कर सकत हैं’- निशाना सही बैठा। बाबू साहब ने वक़्त की नज़ाकत समझी।
हरहुआ की झोपड़ी में टी०वी० लग गई। अब वह गाँव-देश की ख़बर सुनने बाहर नहीं जाता।काम-धन्धा निपटा कर रोज़ देखता है टी०वी०।देश कितनी उन्नति कर रहा है।हर हाथ को काम मिल गया,हर ग़रीब को मकान मिल गया।प्रधानमन्त्री रोजगार योजना के कितने आयाम .सड़क योजना...नरेगा..अन्त्योदय योजना..खाद्दान्न योजना...।हर ग़रीब को ऋण..फसलों का बीमा..अपनी सुरक्षा जीवन बीमा..जीवन के साथ भी..जीवन के बाद भी ..।खेतों में ट्रैक्टर ,नलकूपों में पानी ,.अहा क्या धार है नहरें भरी हुई ...हर खेत में पानी ही पानी ..हरियाली ही हरियाली । अथाह पैदावार अथाह उत्पादन..चारो तरफ़ हँसते चेहरे ,,कोई भूखा-नंगा नहीं। कितनों को ग़रीबी रेखा से ऊपर उठाया हमारी सरकार ने । आँकड़े ही आँकड़े -हरहुआ टी०वी० देख रहा है ।एक पर्दा-सुख से आनन्द विभोर हो जाता है।प्रसन्नता की लहर दौड़ जाी है ,बदन में एक सुरुहरी पैदा होती है । सोचता है -दक्खिन टोला वाले कुछ नहीं जानते । जानेगे भी कैसे? टी०वी० देखेंगे तब न। बाबू साहब ने बड़ी किरपा की और मन ही मन उनके प्रति श्रद्धानत हो जाता है।
हरहुआ टी०वी० देखता है । चित्रहार देखता है .रंगोली सुनता है। गाना गुनगुनाता है -चोली के पीछे क्या है? राम ! राम ! राम! कईसा धरम गिर गया है। सोचता है-"इन्साफ़ के डगर वाला गनवा कहाँ चला गया?अब उसे देश-दुनिया से क्या लेना-देना ? अब वह कहीं नहीं जाता।नहीं होता है अब हुक्का-पानी।नहीं होती अब लाल-झंडियों के साथ संगत-पंगत। ’मेरीआवाज़ सुनो’ देखता है ,अपनी आवाज़ नहीं सुनाता है।कट गया है बिरादरी से। ये लोग ’करईल’के माटी(काली-मिट्टी) हैं -नहीं ’पानी’ मिला तो सख़्त पत्थर हैं ,’पानी’ मिला तो लिज-लिज हैं ।यही है वह क़ौम जो घास-फूस से भी ज़्यादा जल्दी आग पकड़ती है।सबसे ज़्यादा असन्तुष्ट है। यही है वह क़ौम जो थोड़े में ही सन्तुष्ट रहती है
बाबू साहब आश्वस्त हैं। हरहुआ भी ख़ुश ,बाबू साहब भी ख़ुश।रहस्य बाबू साहब जानते हैं।
बाबू साहब कल भी थे ,बाबू साहब आज भी हैं।हरहुआ कल भी था,हरहुआ आज भी है।लोग टी०वी० से चिपके पड़े हैं ।डर है कहीं सारा देश "हरहुआ’ न हो जाये।
अस्तु
-आनन्द.पाठक
आनन्द जी,
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर और सच लिखा है।
देखने का नजरिया और अभिव्यक्ति दोनों ही बहुत प्रभावी.
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