बुधवार, 23 सितंबर 2009

व्यंग्य 13 : रावण नहीं मरता.....

एक व्यंग्य : रावण नहीं मरता.....
सुबह ही सुबह मिश्रा जी आ टपके। हाथ में सद्द: प्रकाशित उनका कोई कहानी संग्रह था।मैं चिन्तित हो गया ,उन्हे देख कर नहीं ,अपितु उनका कहानी संग्रह देख कर।विगत वर्ष भी वह अपना ऐसा ही एक कहानी संग्रह लेकर उपस्थित हुए थे जिसका परिणाम यह हुआ कि हमारे जैसे बहुत से पाठकों ने कहानी पढ़ना ही छोड़ दिया।लगता है हिंदी जगत में कल रात फिर कोई दुर्घटना हो गई। आते ही आते हड़्बड़ाते हुए बोले-
" पाठक ! एक कलम देना"
"क्यों ? लिखते हुए तो पाठक गण से कलम नहीं माँगते हो"
"यार ! मजाक छोड़ो ,जल्दी में हूँ ।मुझे यह संग्रह तुझे भेंट करना है"
"तो भेंट कर दो न ,कलम के बदले भेंट करोगे क्या?"
"यार ,जल्दी करो,मुझे और लोगों को भी यह संग्रह भेंट करना है"
मैं प्रेम में पराजित किसी योद्धा की तरह तर्कहीन हो अपनी कलम सौंप दी
मिश्रा जी ने जल्दी जल्दी कलम खोली,रोशनाई छिड़की,पारम्परिक शैली में लिखा
"स्वर्गीय पाठक को
एक तुच्छ भेंट
-सस्नेह मिश्रा।
"भाई मिश्रा !अभी हम स्वर्गीय नहीं हुए हैं"-मैने संशोधन करना चाहा
"तो क्या हुआ ? हो जाओगे। अग्रिम लिख दिया । सोचा फिर कहाँ मिलोगे"
"लगता है पूरा संग्रह आद्दोपान्त पढ़ अवश्य हो जाऊँगा"
"हें! हें ! प्रतीत होता है तुम्हारा व्यंग्य बोध स्तर ’परसाई’ जी से कम नहीं है"-मिश्रा जी ने मेरी प्रतिभा सराही
"और आप की भी कहानियों का स्तर "अज्ञेय " जी से कम नहीं -मैने बिना पढ़े ही उनकी प्रतिभा सराही।
फ़िर हम दोनों अपने-अपने महापुरुषों को अणाम-प्रणाम कर श्रद्धानत हुए।हिंदी में इसे लेन-देन की पारस्परिक समीक्षा कहते हैं।
"यार पाठक,जरा मैं जल्दी में हूँ....तथापि इन कहानियों के बारे में संक्षेपत: स्पष्ट कर दूँ ....
" मालूम है भाई मिश्रा ! हिंदी का पाठक यूँ भी जल्दी में नहीं रहता ,जल्दी में रहता है लेखक...उसे छ्पास की जल्दी रहती है...संग्रह भेंट करने की जल्दी रहती है....उसे जल्दी रहती है समीक्षा करवाने की...गोष्टी करवाने की ...विमोचन करवाने की...खेमा में घुसने की...।पाठकगण का क्या है! मुफ़्त में मिला तो पढ़ लिया"-मैने स्पष्ट किया
"यार लगे बोर करने।हाँ तो मै कह रहा था कि जो तुम देख रहे हो वह सत्य नहीं,जो सत्य है वह अलक्षित है ..सत्य धर्म है,,सत्य शाश्वत है ...पराड़्मुखता ही जीवन सार है ..वैशिष्ट्य ही व्यक्तित्व है...संग्रह का अपना व्यक्तित्व है..लेखनी का अपना मूल्य (मोल नहीं) है । स्थापित मापदण्ड है...सत्य चिन्तन है...चिन्तन और मनन में तार्किक अन्तर है ..सत्य प्रज्ञा है..अज्ञेय है...रावण मरता नहीं...मरना भी नहीं चाहिए...रावण मर गया तो राम क्योंकर आएंगे...? यदा यदा ही धर्मस्य ...राम का आविर्भाव होना है..... तो रावण को ज़िन्दा रखना होगा ..। राम चेतना हैं....रावण जड़ है...वह जड़ जिसकी जड़ें गहराईयों में दूर दूर तक फैली हैं ,,गाँवों से लेकर शहर तक...लखनऊ से लेकर दिल्ली तक..।ऊपर स्थूल है ...नीचे सूक्ष्म अदॄश्य अगोचर...हमें स्थूल से सूक्ष्म की तरफ जाना है...यही रहस्यवाद है ..छाया पीटने से कुछ नहीं होगा...हमें स्थूल पहचानना होगा...मूलोच्छेदन करना होगा....."
" आप चाय पीयेंगे?’ -मैने मध्य में ही बात काटना श्रेयस्कर समझा
" और आप?"
"मेरे लिए ’पेनजान ही काफी है"
"तो क्या आप भी मेरी तरह ’पेनजान’ पर भरोसा करते है?--उन्होने झट से ’पेनजान’ की एक टिकिया मेरी तरफ़ बढ़ दी और पुन: शुरू हुए
" हाँ ,तो मैं क्या कह रहा था.....?"
"कि आप को अभी कई जगह जाना है।"
" हाँ ,तो हमें सूक्ष्म से स्थूल की तरफ जाना है..."
"जी नहीं,आप को यह संग्रह भेंट करने जाना है"
" चले जाएंगे यार ! जब मुफ़्त में ही देना है तो कौन सी जल्दी है"
" मगर मुझे है"-कह कर मैं अन्दर चला गया।
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यह कहानी संग्रह क्या था ! उसकी संक्षेपिका जो अभी-अभी स्पष्ट कर गए ,अगम्य थी।नि:शुल्क दे गये थे सो पढ़ना पड़ा। आवरण काफी आकर्षक व मनमोहक था। शीर्षक से अच्छी तो आवरण पर अनावॄत लडकी की वह तस्वीर थी जो ग्लोसी पेपर पर छ्पी थी बिल्कुल रानू के उपन्यास की तरह।प्रकाशक महोदय ने अपनी लेखनी से दो-चार पृष्ट का संक्षिप्त परिचय लिख दिया था जिसका आशय यह था कि हिंदी कहानी में प्रेमचन्द जी का पुनर्जन्म हो चुका है। हिंदी जगत को इस लेखक से काफी आशा है और उन्हें पूरी उम्मीद है कि ऐसी सुपाठ्य पुस्तके छाप -छाप कर वह हिंदी की सेवा करते रहेंगे।
ऐसे संग्रह की समीक्षा क्या लिखना !पाठकों हेतु ’एनोटमी"(शरीर संबंधित)समीक्षा लिख रहा हूँ।"आवरण" देख शरीर में एक अदॄश्य सी ’अँगड़ाई’ उभरने लगी।प्रकाशक जी द्वारा लिखित संक्षिप्त परिचय पढ़ा तो ’माथा भारी’ हो गया,प्रस्तावना पढ़ी तो पूरे बदन में एक "जकड़न-सी होने लगी,प्रथम कहानी में "जम्भाई" दूसरी कहानी पढ़ हल्का-हल्का ज्वर। तीसरी कहानी पढ़ते-पढ़ते ’जाड़ा’देकर कंपकंपी फिर जूड़ीताप। लगता है ठीक ही लिखा था अन्तिम कहानी पढ़्ते-पढ़ते स्वर्गीय......
मध्यान्तर तक जाते मैं अचेत हो गया ।
भयंकर सपने आने लगे-जी हारर शो की तरह।घटाटोप अन्धकार ....,भयानक सन्नाटा,,.....दूर कहीं कुत्ते के रोने की आवाज....खण्डहर में रह-रह कर पंख फड़्फड़ाते सन्नाटा भंग करते हुए परिन्दे....फिर देर तक भयानक शान्ति....घरर चरर कर खुलता हुआ एक दरवाज़ा... नीरवता भंग करते हुए ,,,कि अचानक ...हा!हा! हा! ,-एक भयंकर अट्टहास से डर गया मैं।
" हा ! हा ! हा! पहचान मैं कौन हूँ??’- छाया ने अट्टाहास किया।
"महाराज ! आप को कौन भूल सकता..?मैं भयभीत हो हाथ जोड़ काँपने लगा- ’ महाराज ! पू्रे ’रामायण काल’ में तो क्या ,मैं तो कहता हूँ सम्पूर्ण संस्कॄत वांडःमय में या यों कहें कि पूरे विश्व साहित्य में आप के अतिरिक्त और कौन -सा पात्र है जिसके दस मुख हैं? दशानन है?"
"हूँ, सही पहचाना!"-कहते हुए अपने खड्ग का अग्रभाग मेरे कंधे पे टिका दिया जो इस समय मुझे किसी ए०के० -४७ से कम नहीं लग रहा था।
"मगर महराज ! "-रावण कहने से अप्रत्यक्ष भय था ,कहीं बिगड़ न जाएं।बुद्धिमान व्यक्ति को ऐसे अवसर पर महाराज ,महामहिम,माननीय,महाशय,महोदय,पूजनीय, जैसे नवनीत लेपक सम्बोधन शब्दों का प्रयोग करना चाहिए।
" महाराज ! आप कौन वाले है? वाल्मीकि ,तुलसीदास या रामानन्द सागर वाले?"- मैने डरते-डरते पूछा
"अरे मूढ़ ! मुझे ’मोशाय’ बोल ,’मोशाय’"- अपने खडग का अग्रभाग दबाते हुए बोला- " अरे मूढ़ ! मैं सार्वकालिक हूँ ,हर काल में व्याप्त हूँ, हर स्थान में व्याप्त हूँ। त्रेता से लेकर द्वापर तक । रामायण में ’रावण’ बना तो "कॄष्णा’में कंस,। अरे मूर्ख ! अपना चौखटा उठा और देख ,लगता है तू रामानन्द सागर का सीरियल नहीं देखता?"- मैने डरते-डरते ऊपर देखा ।पहचानने का एक समर्थ प्रयास किया ।विस्मित हो गया।
" अरे ’त्रिवेदी जी " आप !"-स्वप्न में कैसे?"- भय कुछ कम हुआ
"हा ! हा ! हा ! खा गया न धोखा ,अरे दुष्ट ! मैं ’त्रिवेदी " नहीं, रावण हूँ रावण।सचमुच का रावण।कल सपने में सीता को देखेगा तो कहेगा-अरे दीपिका जी आप ? आइए आइए कौन सा साबुन दे दूँ। अरे ’रावण’ को देख ’रावणत्व’ को पहचान।
" ठीक है ,ठीक है ।यदि आप सचमुच के रावण हैं तो इधर कलकत्ता में क्या कर रहे हैं ,लंका क्यों नहीं जाते ?" -मैने भी झुंझला कर कहा
"वोई खने छिलाम,लंका में उधर मार-काट मची है सो इधर चला आया, सुना है ’इन्फ़िल्ट्रेशन’ की बड़ी सुविधा है इधर।
"एकटा आस्ते बोलून मोशाय आस्ते बोलून ,राम रथ वाले इधर आ गए तो वापस जाना पड़ेगा"-मैने कहा
"अरे ! छोड़ो । जो एक बार इधर आ जाता है वापस नहीं जाता ’वोट’ में बदल जाता है । वैसे भी मेरा ’वोट’ दस ’वोट’ के बराबर है "-अपने दसो चेहरों की ओर इंगित करते हुए कहा-"चुनाव आयोग भी कुछ नहीं कर सकता,मुझे दस फोटू खिंचवाना है"
"लेकिन आप तो मर गए थे स्सर!"-मैं शुद्ध सचिवालयीय शैली पर उतर आया
" अरे! अज्ञानी !पुच्छ-विषाण-हीन पुरुष ! वह झूठ था,सब झूठ। वाल्मीकि से लेकर तुलसी तक,राधेश्याम से लेकर रामानन्द सागर तक सबने मुझे मारा। सभी ने यही समझा राम ने मुझे मार डाला। रावण मरता नहीं। ’रावणत्व’ अमर है।आज भी ज़िन्दा है।हर गाँव में,हर शहर में,हर गली में ,हर महानगर में।हर काल में हूँ,हर देश में हूँ,हाईड्रोजन बम्ब में हूँ,परमाणु बम्ब में हूँ, रावण व्यक्ति नहीं ,प्रवॄत्ति है ।हर अपहरण में हूँ,हर युद्ध में हूँ, हर छ्द्मवेश में हूँ,हर हठ में हूँ। मेरे मरने के बाद,क्या अब सीता का अपहरण नहीं होता? क्या सीता जलाई नहीं जाती?सीता का परित्याग नहीं होता? अरे! मैं तो रावण था तथापि सीता का स्पर्श नहीं किया। क्या आज की सीता अछूती है? मैने उन्हें ससम्मान अशोक-वाटिका में रखा ,क्या आज की सीता ’फ़ाईव स्टार’ होटलों में नहीं रखी जाती? राम को मारने के लिए ,रामत्व की आवश्यकता है । तुम्हे रावण नहीं ,’राम’ खोजना चाहिए"
"खोज रहे हैं स्सर! राम भी खोज रहें है। हर चुनाव काल में कुछ लोग ’राम-रथ’ पर आरूढ़ हो राम खोजते हैं देश के इस छोर से उस छोर तक।
’लेकिन तोमारा तुलसी तो बोलता था राम घोट घोट में व्याप्त हैं"
"जी स्सर ! आजकल ’वोट’ वोट ’ में व्याप्त हैं। जब नहीं मिलते है तो उन्हीं के नाम की खड़ाऊँ ले,सदन में घुसते हैं। आज कल जरा व्यस्त है उनका मन्दिर बनाने में ,उन्हीं के गॄह नगर अयोध्या में"
"इस प्रगति से तो मन्दिर तो नही,बहुत से जोगियों वाला मठ बन जाएगा,कलियुग बीत जाएगा"- रावण ने कहा। ज्ञानी था।
"ज़रूर बनेगा" -मैने भी केसरिया स्कार्फ़ बाँधते हुए कहा-"अभी हम लोगों ने भूमि समतल कार्य कर दिया है ,अगला कार्यक्रम किसी अगले चुनाव में या अगले कुम्भ मेला में निर्धारित करेंगे।"
रावण के इस दिव्य ज्ञान से मैं अति प्रभावित हुआ।श्रद्धावश हाथ जोड़ कर कहा -" धन्य हो ज्ञानी श्रेष्ट श्रीमन !आज आप का दर्शन कर कॄतार्थ हो गया।"
" तो और सुन !"- अपना व्याख्यान क्रम जारी रखते हुए रावण ने कहा --"...जो तू देख रहा है वह सत्य नहीं,जो सत्य है वह अलक्षित है ..सत्य धर्म है,,सत्य शाश्वत है ...तू स्थूल है ,मैं सूक्ष्म हूँ...स्थापित मापदण्ड है...सत्य चिन्तन है...जड़ और चेतन में दार्शनिक अन्तर है ..सत्य प्रज्ञा है..अज्ञेय है...
धीरे-धी्रे सपने में आकॄति बदलने लगी। खडग के कुशाग्र की जगह ’लेखनी ’का अग्रभाग चुभने लगा ।तलवार कलम में परिवर्तित होती नज़र आने लगी।मैने कहा -" अरे मिश्रा तू ...!"
" हा ! हा! हा! हो गया न भ्रमित !अरे मूढ़ मै मिश्रा नहीं रावण हूँ ,रावण।अच्छा अब बोल तलवार बड़ी कि कलम?"
" तलवार"-मैने झट से उत्तर दिया
"कैसे?"-आकॄति ने विस्मयकारी विस्फारित नेत्रों से देखा
"आपात काल में तलवार देख कलम चुप हो गई थी।जब तक तलवार की नोंक चुभ रही थी तो ’स्सर स्सर महाशय मोशाय ’ कर रहा था जब कलम की नोंक चुभी तो ’तू’ पर उतर आया"
"पाठक जरा कलम देना "-मिश्रा ने झकझोर कर जगाया।स्वप्न भंग हो गया।निद्रा टूट गई।अंगडा़ई लेते हुए बोला--’"
और जो सुबह दी थी ,वह क्या हुई"
"पाठकों को चुभाते-चुभाते निब टूट गई"
"असंवेदनशील रूढ़मना पाठकों को चुभाओगे तो निब टूटेगी ही। कलम की नोक पर तलवार की नोक लगा दो..."।
मैने कलम और संग्रह दोनो ही लौटा दिए अपनी सुविधा हेतु। यह ले अपनी लकुटि-कमरिया ,बहुत हि नाच नचायो"
-अस्तु
-आनन्द

1 टिप्पणी:

  1. जबर्दस्त..क्या लिखते हैं आप..और कितनी कुशलता से साध लेते हैं इतने सारे प्रतीक..आनंद आया..पढ़ कर..
    हाँ समीक्षा और स्वप्न वाले दोनो सीक्वेंस अलग-अलग रचनाएं हो सकते थे..बीच मे थोड़ी से विषयविमुखता सी आती लगी...

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