प्रिय मित्रो !
"सुदामा की खाट’- मेरा दूसरा सद्द: प्रकाशित व्यंग्य-संग्रह’ है.जिसमें विभिन्न सामाजिक विद्रूपताओं पर लिखे गए १७ व्यंग्यों का संकलन है’ ।इस पुस्तक का प्रकाशन
’अयन प्रकाशन
१/२० ,महरौली ,नई दिल्ली ,११० ०३०
दूरभाष ०११-२६६४५८१२
ने किया है
आशा करता हूँ सुधी पाठकों को यह संग्रह पसन्द आयेगा
०० ०००
पुस्तक की भूमिका से----
’बात जहां पर तय होनी थी किस पर कितने चढ़े मुखौटे
जो चेहरे ’उपमेय’ नही थे ,वो चेहरे ’उपमान’ बन गये
सच। यह एक विडम्बना है-सामाजिक विडम्बना।आप के आस-पास दिखते हुए चेहरे -अनेक चेहरे। कोई चेहरा साफ़ नहीं,स्पष्ट नही,निश्छ्ल नहीं।बाहर कुछ-भीतर कुछ। जो वह है -वह दिखता नहीं। जो दिखता है- वह है नहीं।हर चेहरे पर एक चेहरा-हर मुखौटे पर एक मुखौटा।कभी मगरमच्छ की तरह आँसू बहाता,कभी गिरगिट की तरह रंग बदलता ,कभी तोते की तरह आँखे फेर लेता है। वह आदमी नहीं ’वोट’ पहचानता है ,वोट बैंक पहचानता है । गिनता है मॄतक किस पार्टी से संबद्ध था ,देखता है ।उस पर भी
विडम्बना यह कि वह स्वयं को ’हिप्पोक्रेट’ नही मानता ,अवसरवादी नही मानता अपितु इसे सीढियां मानता है-सफलता की सीढियां।
........ सच बोलने पर बुरा मानते लोग..,आइना दिखाने पर पत्थर उठाते लोग,... झूठे आश्वासनों का बोझ ढोता... ’बुधना’ ,गरीबी रेखा के नीचे दबा आम आदमी... ’वोट’ के लिए नित नए-नए स्वांग रचते लोग...रंगीन तितलियों से खेलते सत्ता के दलाल...रोटी माँगने पर भीड़ पर गोली चलाती व्यवस्था...कर्ज़ के बोझ से दबे आत्महत्या करते किसान...बारूद की ढेरी पर बैठा शहर...कुर्सी की खातिर सिद्धान्तों व मानवीय मूल्यों को तिलांजली देती पार्टियां...’सुदामा की खाट" पर कब्जा किए हुए युवा सम्राट..क्या काफी नही है
एक संवेदनशीलमना व्यक्ति को उद्वेलित करने के लिए.? संवेदना ज़िंदा है तो हम आप ज़िंदा हैं अन्यथा जब संवेदना मर जाएगी तो ’ बिल्लो रानी’ चाहे ज़िगर मा आग से ’बीडी़’ जला लें या बम्ब धमाके से ५० मरे -मात्र एक समाचार से ज्यादा कुछ नही होगा......
--आनन्द
"सुदामा की खाट’- मेरा दूसरा सद्द: प्रकाशित व्यंग्य-संग्रह’ है.जिसमें विभिन्न सामाजिक विद्रूपताओं पर लिखे गए १७ व्यंग्यों का संकलन है’ ।इस पुस्तक का प्रकाशन
’अयन प्रकाशन
१/२० ,महरौली ,नई दिल्ली ,११० ०३०
दूरभाष ०११-२६६४५८१२
ने किया है
आशा करता हूँ सुधी पाठकों को यह संग्रह पसन्द आयेगा
०० ०००
पुस्तक की भूमिका से----
’बात जहां पर तय होनी थी किस पर कितने चढ़े मुखौटे
जो चेहरे ’उपमेय’ नही थे ,वो चेहरे ’उपमान’ बन गये
सच। यह एक विडम्बना है-सामाजिक विडम्बना।आप के आस-पास दिखते हुए चेहरे -अनेक चेहरे। कोई चेहरा साफ़ नहीं,स्पष्ट नही,निश्छ्ल नहीं।बाहर कुछ-भीतर कुछ। जो वह है -वह दिखता नहीं। जो दिखता है- वह है नहीं।हर चेहरे पर एक चेहरा-हर मुखौटे पर एक मुखौटा।कभी मगरमच्छ की तरह आँसू बहाता,कभी गिरगिट की तरह रंग बदलता ,कभी तोते की तरह आँखे फेर लेता है। वह आदमी नहीं ’वोट’ पहचानता है ,वोट बैंक पहचानता है । गिनता है मॄतक किस पार्टी से संबद्ध था ,देखता है ।उस पर भी
विडम्बना यह कि वह स्वयं को ’हिप्पोक्रेट’ नही मानता ,अवसरवादी नही मानता अपितु इसे सीढियां मानता है-सफलता की सीढियां।
........ सच बोलने पर बुरा मानते लोग..,आइना दिखाने पर पत्थर उठाते लोग,... झूठे आश्वासनों का बोझ ढोता... ’बुधना’ ,गरीबी रेखा के नीचे दबा आम आदमी... ’वोट’ के लिए नित नए-नए स्वांग रचते लोग...रंगीन तितलियों से खेलते सत्ता के दलाल...रोटी माँगने पर भीड़ पर गोली चलाती व्यवस्था...कर्ज़ के बोझ से दबे आत्महत्या करते किसान...बारूद की ढेरी पर बैठा शहर...कुर्सी की खातिर सिद्धान्तों व मानवीय मूल्यों को तिलांजली देती पार्टियां...’सुदामा की खाट" पर कब्जा किए हुए युवा सम्राट..क्या काफी नही है
एक संवेदनशीलमना व्यक्ति को उद्वेलित करने के लिए.? संवेदना ज़िंदा है तो हम आप ज़िंदा हैं अन्यथा जब संवेदना मर जाएगी तो ’ बिल्लो रानी’ चाहे ज़िगर मा आग से ’बीडी़’ जला लें या बम्ब धमाके से ५० मरे -मात्र एक समाचार से ज्यादा कुछ नही होगा......
--आनन्द
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें