श्रीपाल सिंह ’क्षेम’ जी को आज बहुत से लोग नहीं जानते होंगे। परन्तु जो हिंदी साहित्य के अध्येता है, हिंदी साहित्य के विद्यार्थी हैं, काव्य रसिक है , गीतप्रेमी है वह उन्हें अवश्य जानते होंगे। क्षेम जी अपने समय के एक समर्थ गीतकार, गीतों के एक सशक्त हस्ताक्षर थे। हिंदी के छायावादोत्तर काल के एक प्रमुख कवि थे। उन्होने , अनेक गीत संग्रह लिखे. काव्य लिखे, उनकी अनेक कृतियां प्रकाशित हुई । आप निराला जी, महादेवी जी फ़िराक़ गोरखपुरी के समकालीन थे । उनके बारे में बहुत सी सामग्री इन्टर्नेट पर या लाइब्रेरी की किताबों में मिल जायेगी।
आज मैं उनकी रचनाओं का साहित्यिक मूल्यांकन नहीं करूंगा। सक्षम भी नहीं हूं, कर भी नहीं सकता । बहुत से सक्षम लोग हैं जो इन पर अपनी विवेचना पहले ही प्रस्तुत कर चुके हैं और आगे भी करते रहेंगे।
आज उनकी पुण्यतिथि [ 22-अगस्त] है अत: इस अवसर पर मैं अपना एक संस्मरण आप लोगों से साझा करना चाहूंगा।
बात सन 1971 की है और मैं B,Sc प्रथम वर्ष का छात्र था। तब तक मुझे घटिया और घिसी पिटी तुकबन्दी करने का रोग लग चुका था। दिमाग में कीड़ा
घुस चुका था,या कहें कि चस्का लग चुका था। मेरी पहली कविता डा0 ज़ाकिर हुसेन [ तत्कालीन राष्ट्रपति ] के निधन के बाद दैनिक अखबार ’आज’ [ वाराणसी के रविवारीय अंक मई 1969 में प्रकाशित हुई थी और बाद में 1-2 कविताएं कालेज मैगजीन में भी प्रकाशित हुई। कहने का मतलब यह कि कविता प्रेम का कीड़ा दिन ब दिन दिमाग में चढ़्ने लगा और अपने आप को कवि होने का भरम पालने लगा । कवियॊ को सुनने श्रोता के रूप में स्थानीय कवि सम्मेलनों में भी मैं जाने लगा।
सन 1971 में ’बंगला देश" [ तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान] का अभ्युदय हो चुका था। भारत को विजय श्री प्राप्त हो चुकी थी। उसी उपलक्ष्य में मेरे शहर ग़ाज़ीपुर [उ0प्र0] में एक कवि सम्मेलन का आयोजन किया गया ।ग़ाज़ीपुर पूर्वांचल का एक छोटा सा शहर है -एक मुठ्ठी का शहर ।
मगर साहित्यिक गतिविधियों में बड़े दिलवाला शहर । आए दिन कवि सम्मेलन हुआ करते थे और मैं साहित्यानुरागी होने के कारण सुनने ज़रूर जाया करता था।
उस कवि सम्मेलन में भी गया जिसमे बाहर के कवियों में जौनपुर से श्री क्षेम जी और उनके साथ कोई सरोज़ जी , रूप नारायण त्रिपाठी जी , बनारस से चकाचक बनारसी और कुछअन्य कविगण पधारे थे ।बाक़ी कविगण स्थानीय थे। जब मैं कवि सम्मेलन सुनने जाने लगा तो पिता जी ने एक चिठ्ठी दी और कहा कि इसे क्षेम जी को दे देना उन्हें घर पर लेते आना । मुझे ख़ुशी इस बात की थी कि क्षेम जी मेरे घर आवे न आवे मगर 1-2 बात करने का सुअवसर तो मिल जायेगा।
कवि सम्मेलन निर्धारित समय से शुरु हुआ और रात में लगभग 1 या 2 बजे तक चला। कविगण बारी बारी से अपना काव्यपाठ करने माइक पर आते थे।
श्रोता गण सामने दरी पर बैठ कर कविताएँ सुनते थे। रूप नारायण त्रिपाठी जी ने अपने काव्य पाठ की शुरुआत 4-लाइ्नों से की। अच्छे गीतकार थे ।, एक मधुर और सधी आवाज़ थी उनकी। वह लाइने आज भी याद है।
तुम्हे देखा रूप देखा प्यार देखा
ज़िंदगी का दूधिया शृंगार देखा
चांद तो हम देखते आए थे लेकिन
ज़िंदगी में चाँद पहली बार देखा ।
चकाचक बनारसी ने भोजपुरी में कुछ कविताएँ सुनाई , जिसकी 1-2 लाइन ही याद है। वह तत्कालीन पाकिस्तान के किसी नायक को कुछ कोस
रहे थे
; जवन डाल पर बइठल रहलऽ ।
उहै डाल यकजाइ कटलऽ---
तोहरा के जो नीच कहीं तऽ--नीचन कऽ अपमान हऽ मालिक।
बाद में अन्य कवियों ने भी अपनी अपनी कविताएँ सुनाई। मंच के संचालक की एक कोशिश यही होती है कि अच्छे और लोकप्रिय कवि को अन्त में बुलाया जाए । श्रोतागण बँधे रहें और बैठे रहें।
अत: क्षेम जी ने को अन्त में बुलाया गया । उन्होने ने 1-2 गीत सुनाया [ गीत याद नहीं] । मेरा सारा ध्यान कवि सम्मेलन के अन्त पर था कि सम्मेलन खत्म हो और मैं पिता श्री का संदेश सौपूँ और जल्दी से इनको लेकर घर ले चलूँ ।
कवि सम्मेलन खत्म हुआ। खत्म होने पर सभी कविगण उठ खड़े हुए । मैं भी उठा और उनसे मिल कर पिता जी का संदेश-पत्र दिया। पढ़ते ही पूछा - तुम पाठक जी [ रमेशचन्द्र पाठक ]के बेटे हो ? मैने सगर्व कहा --जी हाँ ।आप को लेने आया हूं~॥
उन्होने कहा --ठीक है । थोड़ा इंतज़ार करो । चलता हूँ।
फ़िर सभी कविगण एक कमरे में जाने लगे । शायद आयोजकों ने कवियों के खाने का इंतज़ाम कर रखा था । मैं और वह दरी उठाने वाला बाहर बैठ कर इंतज़ार करने लगे। दरी वाला तो ख़ैर शायद संयोजक का इंताजार कर रहा था पेमेन्ट लेने का चक्कर रहा होगा और मैं क्षेम जी का इंतज़ार । दूर से देखा संयोजक जी कवियॊं कॊ कुछ लिफ़ाफ़ा बाँट रहे थे। सोचने लगा कि यह लिफ़ाफ़ा क्यों दिए जा रहे हैं।
-- क्या होगा लिफ़ाफ़े में? शायद -धन्यवाद पत्र होगा- प्रशस्ति पत्र होगा--आप पधारे-आप ने शोभा बढाई--आप ने काव्य-पाठ किया आदि आदि ।
लगभग एक घंटे बाद, क्षेम जी बाहर आए। बोले -चलॊ। उनके साथ में एक कवि और थे । क्षेम जी के शिष्य रहे होंगे ।-अपना नाम कोई ’सरोज’ जी बताया था।
रात को 2 बजे। सड़के सूनी । छोटा सा शहर -रात 12 बजते बजते सो जाने वाला शहर। सवारी के नाम पर मात्र रिक्शा हुआ करता था उन दिनो शहर में । वह भी उतनी रात में कहां~ मिलता।
इस अँधेरी रात में पैदल ही चलना था ।यह बात क्षेम जी भी जानते थे। अत: हम तीनो पैदल ही चल दिए। मुठ्ठी भर का शहर-- दूरी ज़्यादे नहीं थी-लगभग- डेढ़ दो कि0मी0 थी। अंधेरी रात --नीरवता --रात का सन्नाटा --- कहीं कहीं 1-2 स्ट्रीट लाइट टिमटिमा रही थी। कभी कभी एक दो कुत्तों के भौकने की आवाज़ --। मुझे कोई परेशानी नही थी -अपना शहर-अपनी सडक। अगर ठोकर लगने का डर न होता तो आँख मूँद कर भी चल सकता था।
नीरवता भंग करते हुए, क्षेम जी ने पूछा-- बेटा ! क्या करते हो?
-तुकबन्दी- अकस्मात निकल गया मुँह से।
क्षेम जी हँसे और मैं झेंप गया ।
-नहीं नहीं , मतलब किस क्लास में हो?
-जी , B,Sc का पहला साल है -यहीं डिग्री कालेज से।
- क्या बनना है ?- उन्होने अगला प्रश्न किया।
-क्षेम जी-- मैने सगर्व कहा ।
इस बार वह हँसे नहीं-- मगर मैं झेंप गया।
-क्यों ? क्षेम क्यों ? आनन्द क्यों नहीं ?
-आनन्द तो मैं ख़ुद ही हूँ , तो ’आनन्द’ क्या बनना ?
- नहीं बेटा , तुम क्षेम नहीं-तुम ;आनन्द’ बनो । किसी का "किसी -सा" बनने से अच्छा स्वयं का -"स्वयं-सा" बनना।"
कहते हैं बड़े लोगो की बात जल्दी समझ में नही आती। मुझे भी समझ में नहीं आई । पर मेरा घर[ महुआ बाग़] आ गया ।
पिता जी बड़े खुले दिल से क्षेम जी मिले जिसे हमारे पूर्वांचल में --हहा के मिलना--छछा के मिलना कहते हैं। बाकी बची रात उन लोगों ने आपस में क्या क्या बात किया होगा , मुझे नहीं मालूम।
यह मेरा काम भी नहीं था।
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53-54 साल बाद आज उनकी याद आ गई । उनसे ज़ियादा उनकी वह बात याद आ गई-- तुम्हे "क्षेम" क्यों बनना ? तुम्हें ’आनन्द ’क्यों नहीं बनना ?
क्यों कहा उन्होने ऐसा ? उस समय मेरी उम्र 16-17 साल की रही होगी । उस समय अपने बालबुद्धि से सोचा , कोई बड़ा कवि नहीं चाहता कि अन्य कोई उनके जैसा बने--या उनके आस-पास तक पहुँचें।
आज 67 साल से ऊपर का हो चुका हूँ । उस दिन की बात सोचता हूँ तो स्वयं पर हँसी आती है और ग्लानि भी। कितना तंग ख़याल था मेरा।कितना संकुचित विचार था मेरा । कितना ग़लत था मैं उस दिन। कितना सही थे क्षेम जी । मैं ही समझ न सका न उनकी बात ।क्षेम जी क्या कहना चाहते थे --तुम क्षेम क्यों बनना चाहते हो ?-- अपने आप को पहचानॊ,-- स्वयं को पहचानो । अपनी पहचान को किसी व्यक्ति के पहचान तक ही सीमित न रखॊ।--तुम उससे भी आगे जा सकते हो। तुम जो भी हो - जैसे भी हो तुम स्वयं हो "स्वयं-सा" बनो, क्यों नहीं बनना चाहते ? -दूसरों की जय के पहले अपनी जय क्यों नहीं करना चाहते ? । ख़ुदी को बुलन्द क्यों नही कर सकते?
कहते हैं बड़े आदमी की बात समझने में कभी कभी एक उम्र लग जाती है । एक उम्र असर होने तक। और मेरी भी लगी।
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मगर वह प्रश्न अनुत्तरित ही रह गया कि पिता जी ने उस दिन क्षेम जी को घर पर क्यों बुलाया? चाह्ते तो वह कवि सम्मेलन में जाकर भी भेट कर सकते थे? क्षेम जी , पिताजी से 1-2 साल बड़े ही थे ।
इस सवाल का उत्तर मुझे 44-साल बाद मिला । पिता जी के मरणोपरान्त । , क्षेम जी की मृत्यु [ 22-अगस्त 2011] को हो गई ।उसके चार साल बाद पिता जी की भी मृत्यु [ अक्टूबर 2015 में हो गई ।लेकिन पिता जी ने अपनी कम्पुटर टंकित किताब- #मेरी #स्मृति #के #पात्र-- [ अप्रकाशित ] में उन्होने क्षेम जी के बारे में बहुत कुछ लिख रखा है । अपने संस्मरण लिख रखें हैं। अपनी यादे लिख रखीं है ।उनके साथ जीवन की 4-5 घटनाओं का ज़िक्र कर रखा है। कभी अवसर मिला तो पिताश्री के वे संस्मरण भी आप लोगों से साझा करूंगा। । पढ़ने से पता लगता है कितने अभिन्न मित्र रहे होंगे वे दोनों।
पिता जी इलाहाबाद यूनिवर्सिटी [1945 से 1949 तक ] के छात्र थे। क्षेम जी भी थे उन्ही दिनों। उनके सभी मित्र लगभग एक ही हास्टल -विस्श्वविद्यालय के --#हिंदू #बोर्डिंग #हाउस--- में रहते थे । क्षेम जी ने हास्टल में ही एक "कवि मित्र संघ" बना रखा था , जिसमें क्षेम जी स्वयं [ जौनपुर ऊ0प्र0 के ] - दूसरे श्री राजाराम जी ’राजेश ’ [ जौनपुर उ0प्र0के ] -तीसरे मेरे पिता जी [ श्री रमेश चन्द्र पाठक [ ग़ाज़ीपुर उ0प्र0के ] चौथे श्री अदभुत नाथ मिश्र [ बलिया उ0प्र0 से ] पाँचवाँ श्री --सर्वेश्वर दयाल-सक्सेना [ बस्ती उ0प्र0 के ] थे।
यही मित्र मंडली -युनिवर्सिटी-- के साहित्यिक आयोजनों में, कवि सम्मेलनों में सक्रिय भागीदारी निभाती थी। पढ़ाई खत्म होने के बाद --सभी लोग अपने व्यवसाय/नौकरी में लग गए। क्षेम जी --तिलकधारी सिंह डीग्री कालेज जौनपु्र में हिंदी व्याख्याता के पद पर कार्यरत हो गए। पिता जी अपने शहर गाजीपुर में वकालत करना शुरु कर दिया ।राजाराम मिश्र जी उ0प्र0 के शिक्षा विभाग में सेवारत हो गए । अद्भुत नाथ मिश्र जी सेन्ट्रल आर्डिनेन्स फ़ैक्टरी कहीं कार्यरत थे--सर्वेश्वर दयाल सक्सेना जी इलाहाबाद में ए0जी0 आफ़िस ज्वाइन कर लिया। पिता जी ने इन सब बातों का ज़िक्र अपनी अप्र्काशित किताब --" मेरी स्मृति के पात्र--में किया है । इन मित्रों ने सिर्फ़ क्षेम जी और सर्वेश्वर दयाल सक्सेना जी ही आजीवन कवि धर्म का निर्वाह किया।
चूकिं बहुत दिनॊ से अपनी यूनिवर्सिटी के मित्र क्षेम जी मुलाकात नही हुई थी पिता जी की । बहुत सी कही अनकही बाते रहीं होगी--कुछ हास्टल के दिनॊ की यादे रहीं होगी -सो क्षेम जी को घर पर ही बुला लिया। और क्षेम जी भी बिना झिझक आने को तैयार हो गए। आज इस संस्मरण से अश्रुपूरित नयन से श्रद्धांजलि देते हुए भगवान से प्रार्थना करता हूँ कि भगवान उनकी आत्मा को शान्ति प्रदान करें ।
ओम शान्ति ।